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निश्चय षट्कारक
स्वामी है।
इसप्रकार वस्तु के स्वतंत्र षट् कारकों की सिद्धि में उपर्युक्त शक्तियाँ साधक हैं। इन्हीं से प्रत्येक द्रव्य की सभी पर्यायें कारकान्तर निर्पेक्ष सिद्ध होती
निश्चय षट्कारक का स्वरूप गुरुदेव ! निश्चय षट्कारकों को आगम के आलोक में समझाने की कृपा करें, ताकि अनादिकाल से अन्दर में बैठी मिथ्या मान्यता की श्रद्धा खण्डित हो जाये।
हाँ, हाँ; तुम बिल्कुल ठीक कहते हो, आगम के आधार बिना बहुत काल से जमी मान्यता को तोड़ना आसान नहीं है। सुनो!
निश्चय षट्कारकों का स्पष्टीकरण करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार गाथा १६ में कहा है कि - जहाँ अपने ही उपादानकारण से कार्य की सिद्धि कही जाये, वहाँ निश्चय कारक होते हैं। निश्चय से छहों कारक एक ही द्रव्य में होते हैं; क्योंकि परमार्थतः एक द्रव्य दूसरे द्रव्य को सहायक नहीं हो सकता। द्रव्य स्वयं ही अपने को, अपने द्वारा, अपने लिए, अपने में से, अपने में करता है। यह निश्चयकारक ही कार्य के नियामक होते हैं।
आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं कि - प्रत्येक स्वभावपर्याय स्वोन्मुख होकर आत्मस्थित होने के काल में ही होती है। निश्चय षट्कारक इसी स्थिति में घटित होते हैं - जैसे कि स्वसंवेदन से सुव्यक्त हुआ यह आत्मा ही (कर्ता) है। निर्विकल्पस्वरूप अपने आत्मा में ही स्थिर हुआ, अत: यही (अधिकरण) है। भाव इन्द्रियों और मन द्वारा जाना, अत: यही (करण) है। अपने शुद्धचिदानन्द रूप को निज आत्मा की प्राप्ति के लिए दिया, अत: आत्मा ही (सम्प्रदान) है।
शुद्धचिदानन्दमय को ध्याता हुआ क्रमश: उत्कृष्ट विशुद्धि को प्राप्त होता है, अत: आत्मा ही (कर्म) है।
स्वानुभूति के काल में जो एकाग्रता होती है। उसी को यहाँ स्पष्ट किया गया है। ऐसा आत्मा स्वयंभू कैसे बनता है? इसका निर्देश करते हुए प्रवचनसार गाथा १६ की तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचन्द्र ने जो लिखा है, उसका सार यह है कि - शुद्ध उपयोग की भावना के प्रभाव से समस्त घातिकर्मों के नष्ट होने से जिसने शुद्ध अनन्तशक्तियुक्त ज्ञायक स्वभाव को प्राप्त किया है, ऐसा वह स्वयं ही षट् कारक रूप है जैसे कि - (१) शुद्ध अनन्तशक्तियुक्त ज्ञायक स्वभाव के कारण स्वतंत्र होने से जिसने कर्तत्व के अधिकार को ग्रहण किया है ऐसा आत्मा स्वयं कर्ता है, (२) शुद्ध अनन्तशक्तियुक्त ज्ञानरूप से परिणमित होने के स्वभाव के कारण स्वयं ही प्राप्य होने से कर्मत्व का अनुभव करता हुआ आत्मा स्वयं कर्म है, (३) शुद्ध अनन्तशक्तियुक्त ज्ञानरूप से परिणमित होने के स्वभाव से स्वयं ही साधकतम (उत्कृष्ट साधन) होने से करणता को धारण करता है, (४) शुद्ध अनन्तशक्तियुक्त ज्ञानरूप से परिणमित होने के स्वभाव के कारण स्वयं ही कर्म द्वारा समाश्रित होने से सम्प्रदानता को धारण करता है, (५) शुद्ध अनन्तशक्तिमय ज्ञानरूप से परिणमित होने के समय पूर्व में प्रवर्तमान विकलज्ञानस्वभाव का नाश होने पर भी सहज ज्ञानस्वभाव से स्वयं ही ध्रुवता का अवलम्बन करने से अपादान है,
और (६) शुद्ध अनन्तशक्तियुक्त ज्ञानरूप से परिणमित होने के स्वभाव का स्वयं ही आधार होने से अधिकरण है । इसप्रकार स्वयमेव छह कारकरूप होने से अथवा उत्पत्ति-अपेक्षा द्रव्यकर्म भावकर्मों रूप घातिकर्मों को दूर करके स्वयमेव आविर्भूत होने से 'स्वयंभू' कहलाता है।
तात्पर्य यह है कि - निश्चय से पर के साथ आत्मा का कारकता का सम्बन्ध नहीं है। अत: शुद्धात्मस्वभाव की प्राप्ति के लिए बाह्य साधन ढूँढ़ने की व्यग्रता से जीव को परतंत्र नहीं होना चाहिए।