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षट्कारक अनुशीलन
स्वात्मोपलब्धि प्राप्त स्वाश्रित, स्वयं से सर्वज्ञता । स्वयंभू बन जाता स्वतः अरु स्वयं से समदर्शिता ।। स्वत: होय भवितव्य , षट्कारक निज शक्ति से । उलट रहा मन्तव्य, मिथ्यामति के योग से।। आचार्यश्री ने परमार्थ षट्कारकों पर प्रवचन प्रारंभ करते हुए कहा -
हे भव्य ! निज कार्य के षट्कारक निज शक्ति से निज में ही विद्यमान हैं; किन्तु मिथ्या मान्यता के कारण अज्ञानी अपने कार्य के षट्कारक पर में खोजता है। यही मिथ्या मान्यता राग-द्वेष की जनक है। अतः कारकों का परमार्थ स्वरूप एवं उनका कार्य-कारण सम्बन्ध समझना अति आवश्यक है। 'अविनाभाव वश जो बाह्य वस्तुओं में कारकपने का व्यवहार होता है, वह वस्तुतः अभूतार्थ है।
गुरुदेव ! कारक किसे कहते हैं? कारक का व्युत्पत्ति अर्थ क्या है?
कारक ? “जो प्रत्येक क्रिया के प्रति प्रयोजक हो, जो क्रिया निष्पत्ति में कार्यकारी हो, क्रिया का जनक हो; उसे कारक कहते हैं।
"करोति क्रियां निवर्तयति इति कारकः” यह कारक का व्युत्पत्यर्थ है। तात्पर्य यह है कि जो किसी न किसी रूप में क्रिया व्यापार के प्रति प्रयोजक हो, कार्यकारी हो, वही कारक हो सकता है अन्य नहीं; कारक छह होते हैं । कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण।
ये छहों क्रिया के प्रति किसी न किसी प्रकार प्रयोजक हैं, कार्यकारी हैं, १. जिस परद्रव्य की उपस्थिति के बिना कार्य न हो। जैसे - घट कार्य में कुंभकार, चक्र, चीवर आदि।