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________________ अपनी बात समान्यतः 'षट्कारक' प्रकरण की चर्चा जनसाधारण में जैसी/जितनी/ बहुचर्चित होनी चाहिए, वैसी/उतनी नहीं है। जबकि यह सिद्धान्त भी जैनदर्शन के वस्तुस्वातन्त्र्य, कार्य-कारणस्वरूप, कर्ता-कर्म और अनेकान्त जैसे प्राणभूत सिद्धान्तों जैसा ही महत्त्वपूर्ण प्रकरण है। वस्तु की स्वतंत्रता का उद्घोषक और वीतरागता का हेतुभूत 'षट्कारक' प्रकरण मोक्षमार्ग में एक ऐसा उपयोगी विषय है, जिसके जाने बिना वस्तु की यथार्थ कारण-कार्य व्यवस्था का ज्ञान न केवल अधूरा रहता है; बल्कि आत्मोपलब्धि में हेतुभूत स्वावलम्बन का मार्ग ही नहीं मिलता। द्वितीय श्रुतस्कन्ध के प्रतिष्ठापक आचार्य कुन्दकुन्ददेव और उनके अध्यात्म के हृदय को खोलने वाले एकमात्र टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्रदेव एवं आचार्य जयसेन जैसे अध्यात्म के लिए समर्पित आचार्यों के द्वारा प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, समयसार आदि मूलग्रन्थों एवं उनकी टीकाओं द्वारा तो विशद विवेचन हुआ ही है, युगपुरुष गुरुदेव श्रीकानजीस्वामी ने भी प्रवचनसार गाथा १६ पर एवं पंचास्तिकाय गाथा ६२, ६६ और समयसार के कर्ताकर्म अधिकार तथा ४७ शक्तियों में आई षट्कारक शक्तियों के माध्यम से षट्कारकों पर विशेष प्रकाश डाला है। गुरुदेवश्री के सान्निध्य में श्रावण माह में लगने वाले सोनगढ़ शिविर में भी यह विषय पढ़ाया जाता रहा है। ___ इन सब बातों से षट्कारक' प्रकरण के अध्ययन-अध्यापन की उपयोगिता असंदिग्ध है। यही सब सोच-विचार कर अगस्त २००२ के जयपुर शिविर में इस विषय के अध्यापन का जो निर्णय लिया, वह स्तुत्य है। जब तक शिक्षार्थियों के हाथ में पाठ्यपुस्तक न हो तब तक अध्ययनअध्यापन में असुविधा तो रहती ही है, अत: शिक्षार्थियों के अध्ययन हेतु मैंने प्रस्तुत कृति लिखने का प्रयास किया है। यदि पाठकों ने थोड़ा भी लाभ लिया तो मेरा श्रम सार्थक होगा। रतनचन्द भारिल्ल प्रकाशकीय अनेक लोकप्रिय मौलिक कृतियों के सिद्धहस्त लेखक पण्डितश्री रतनचन्दजी भारिल्ल का यह शोध निबन्ध षट्कारक के स्वरूप एवं प्रक्रिया पर भरपूर प्रकाश डालता है। यह विषय जैनदर्शन की कारण-कार्य प्रक्रिया का ही अभिन्न अंग है। वीतरागता रूप मोक्षमार्ग की उपलब्धि में इस विषय की अहम भूमिका है। इसके यथार्थ ज्ञान-श्रद्धान बिना मोक्षमार्गका प्रारंभही नहीं हो सकता । वस्तुस्वातंत्र्य जैसे महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त को समझने के लिए षट्कारकों का समझना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है। __ प्रस्तुत निबन्ध में पण्डित श्री रतनचन्दजी भारिल्ल ने आगम के आलोक में इस विषय का गहन अध्ययन प्रस्तुत किया है । सन् २००२ के अगस्त में लगने वाले शिक्षण शिविर में प्रौढ़ कक्षा में षट्कारक' विषय के अध्यापन कराने का निर्णय लिया गया था। एतदर्थ आपसे निवेदन किया गया। तब आपने तात्कालिक तैयारी के साथ जो सफलतापूर्वक पढ़ाया, उससे सभी लोग लाभान्वित तो हुए ही, प्रसन्न और संतुष्ट भी रहे । इसकारण इसी विषय को आगामी शिविरों में चालू रखने का निर्णय ले लिया गया। यद्यपि आदरणीय पण्डितश्री रतनचन्दजी भारिल्ल ने इस निबन्ध को शिविर की प्रौढ़ कक्षा में अध्यापन हेतु ही तैयार किया है । परन्तु यह कृति विषय के विश्लेषण के साथ अधिकांश प्रश्नोत्तरों के रूप में सरल-सुगम शैली में प्रस्तुत होने से सामान्य पाठकों के लिए भी उपयोगी बन गई है। आशा है पाठक अधिक से अधिक मात्रा में लाभ उठायेंगे। आप दीर्घायु हों और इसीतरह जिनवाणी का अध्ययन-अध्यापन एवं प्रचारप्रसार करते रहें; हमारी यही मंगल कामना है। सुन्दर आवरण एवं प्रकाशन की व्यवस्था के लिए विभाग के प्रभारी अखिल बंसल धन्यवादाह हैं। - नेमीचन्द पाटनी महामंत्री
SR No.008379
Book TitleShatkarak Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2002
Total Pages20
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size126 KB
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