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लोकमानस रूप से रवितेज अपने तेज से। जो हरे निर्मल करें दशदिश कान्तिमय तनतेज से ।। जो दिव्यध्वनि से भव्यजन के कान में अमृत भरें। उन सहस अठ लक्षण सहित जिन-सूरि को वंदन करें।।२४।। प्राकार से कवलित किया जिस नगर ने आकाश को। अर गोल गहरी खाई से है पी लिया पाताल को ।। सब भूमितल को ग्रस लिया उपवनों के सौन्दर्य से । अद्भुत् अनूपम अलग ही है वह नगर संसार से ।।२५।। गंभीर सागर के समान महान मानस मंग हैं। नित्य निर्मल निर्विकारी सुव्यवस्थित अंग हैं।।
परभाव के परित्याग की दृष्टि पुरानी न पड़े। अर जबतलक हे आत्मन् वृत्ति न हो अतिबलवती ।। व्यतिरिक्त जो परभाव से वह आतमा अतिशीघ्र ही। अनुभूति में उतरा अरे चैतन्यमय वह स्वयं ही ।।२९।। सब ओर से चैतन्यमय निजभाव से भरपूर हूँ। मैं स्वयं ही इस लोक में निजभाव का अनुभव करूँ।। यह मोह मेरा कुछ नहीं चैतन्य का घनपिण्ड हूँ। हूँ शुद्ध चिद्घन महानिधि मैं स्वयं एक अखण्ड हूँ।।३०।। बस इसतरह सब अन्यभावों से हुई जब भिन्नता । तब स्वयं को उपयोग ने स्वयमेव ही धारण किया ।।
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--- --- प्रकटित हुआ परमार्थ अर दृग ज्ञान वृत परिणत हुआ। तब आतमा के बाग में आतम रमण करने लगा ।।३१।। सुख शान्तरस से लबालब यह ज्ञानसागर आतमा। विभरम की चादर हटा सर्वांग परगट आतमा ।। हे भव्यजन! इस लोक के सब एकसाथ नहाइये। अर इसे ही अपनाइये इसमें मगन हो जाइये ।।३२।।
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सहज ही अद्भुत् अनूपम अपूरव लावण्य है। क्षोभ विरहित अर अचल जयवतं जिनवर अंग हैं ।।२६ ।। इस आतमा अर देह का एकत्व बस व्यवहार से। यह शरीराश्रित स्तवन भी इसलिए व्यवहार से ।। परमार्थ से स्तवन है चिद्भाव का ही अनुभवन । परमार्थ से तो भिन्न ही हैं देह अर चैतन्यधन ।।२७।। इस आतमा अर देह के एकत्व को नय युक्ति से। निर्मूल ही जब कर दिया तत्त्वज्ञ मुनिवरदेव ने ।। यदि भावना है भव्य तो फिर क्यों नहीं सद्बोध हो। भावोल्लसित आत्मार्थियों को नियम से सद्बोध हो ।।२८।।
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(सवैया इकतीसा) जीव और अजीव के विवेक से है पुष्ट जो, ऐसी दृष्टि द्वारा इस नाटक को देखता।
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