________________
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
T
-
-
-
-
-
---
---
---
--
--
---
---
-
r
-
-
-
त्रैरूपता को प्राप्त है पर ना तजे एकत्व को। यह शुद्ध निर्मल आत्मज्योति प्राप्त है जो स्वयं को।। अनुभव करें हम सतत ही चैतन्यमय उस ज्योति का। क्योंकि उसके बिना जग में साध्य की हो सिद्धि ना ।।२०।।
-
-
-
-
---
-
-
(हरिगीत) है कामना यदि सिद्धि की ना चित्त को भरमाइये। यह ज्ञान का घनपिण्ड चिन्मय आतमा अपनाइये ।। बस साध्य-साधक भाव से इस एक को ही ध्याइये। अर आप भी पर्याय में परमातमा बन जाइये ।।१५।। मेचक कहा है आतमा दृग ज्ञान अर आचरण से । यह एक निज परमातमा बस है अमेचक स्वयं से ।। परमाण से मेचक-अमेचक एक ही क्षण में अहा। यह अलौकिक मर्मभेदी वाक्य जिनवर ने कहा ।।१६।। आतमा है एक यद्यपि किन्तु नयव्यवहार से। त्रैरूपता धारण करे सद्ज्ञानदर्शनचरण से ।।
-
-
-
--
-
(रोला) जैसे भी हो स्वत: अन्य के उपदेशों से।
भेदज्ञानमूलक अविचल अनुभूति हुई हो ।। ज्ञेयों के अगणित प्रतिबिम्बों से वे ज्ञानी ।
___ अरे निरन्तर दर्पणवत् रहते अविकारी ।।२१।।
-
--
-
-
-
--
---
--
--
..-
१४)
-
-
-
-
-
-
-
--
(हरिगीत) आजन्म के इस मोह को हे जगतजन तुम छोड़ दो। अर रसिकजन को जो रुचे उस ज्ञान के रस को चखो।। तादात्म्य पर के साथ जिनका कभी भी होता नहीं। अर स्वयं का ही स्वयं से अन्यत्व भी होता नहीं।।२२।।
-
-
-
-
--
-
बस इसलिए मेचक कहा है आतमा जिनमार्ग में । अर इसे जाने बिन जगतजन ना लगें सन्मार्ग में ।।१७।। आतमा मेचक कहा है यद्यपि व्यवहार से। किन्तु वह मेचक नहीं है अमेचक परमार्थ से ।। है प्रगट ज्ञायक ज्योतिमय वह एक है भूतार्थ से। है शुद्ध एकाकार पर से भिन्न है परमार्थ से।।१८।। मेचक अमेचक आतमा के चिन्तवन से लाभ क्या। बस करो अब तो इन विकल्पों से तुम्हें है साध्य क्या ।। हो साध्यसिद्धि एक बस सद्ज्ञानदर्शनचरण से। पथ अन्य कोई है नहीं जिससे बचे संसरण से ।।१९।।
-
-
-
--
-
-
-
-
-
--
-
-
-
निजतत्त्व का कौतूहली अर पड़ौसी बन देह का। हे आत्मन् ! जैसे बने अनुभव करो निजतत्त्व का।। जब भिन्न पर से सुशोभित लख स्वयंको तब शीघ्र ही। तुम छोड़ दोगे देह से एकत्व के इस मोह को ।।२३।।
(१७)____
-
-
--
-
-
-
-
-
-
_____(१५) - - - - - --
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
-
--
-
-
-
-
-
-
-
-
-