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(दोहा) शुद्धनयाश्रित आतमा, प्रगटे ज्योतिस्वरूप । नवतत्त्वों में व्याप्त पर, तजे न एकस्वरूप ।।७।।
पावें न जिसमें प्रतिष्ठा बस तैरते हैं बाहा में। ये बद्धस्पृष्टादि सब जिसके न अन्तरभाव में ।। जो है प्रकाशित चतुर्दिक उस एक आत्मस्वभाव का। हे जगतजन ! तुम नित्य ही निर्मोह हो अनुभव करो ।।११।।
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(रोला) शुद्ध कनक ज्यों छुपा हुआ है बानभेद में।
नवतत्त्वों में छुपी हुई त्यों आत्मज्योति है।। एकरूप उद्योतमान पर से विविक्त वह ।
अरे भव्यजन ! पद-पद पर तुम उसको जानों ।।८।।
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(रोला) अपने बल से मोह नाशकर भूत भविष्यत् ।
वर्तमान के कर्मबंध से भिन्न लखे बुध ।। तो निज अनुभवगम्य आतमा सदा विराजित ।
विरहित कर्मकलंकपंक से देव शाश्वत ।।१२।।
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(१०)
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निक्षेपों के चक्र विलय नय नहीं जनमते ।
अर प्रमाण के भाव अस्त हो जाते भाई ।। अधिक कहें क्या द्वैतभाव भी भासित ना हो।
शुद्ध आतमा का अनुभव होने पर भाई।।९।।
------ शुद्धनयातम आतम की अनुभूति कही जो।
वह ही है ज्ञानानुभूति तुम यही जानकर ।। आतम में आतम को निश्चल थापित करके।
सर्व ओर से एक ज्ञानघन आतम निरखो।।१३।।
(हरिगीत) परभाव से जो भिन्न है अर आदि-अन्त विमुक्त है। संकल्प और विकल्प के जंजाल से भी मुक्त है।। जो एक है परिपूर्ण है - ऐसे निजात्मस्वभाव को। करके प्रकाशित प्रगट होता है यहाँ यह शुद्धनय ।।१०।।
खारेपन से भरी हुई ज्यों नमक डली है।
ज्ञानभाव से भरा हुआ त्यों निज आतम है ।। अन्तर-बाहर प्रगट तेजमय सहज अनाकुल।
जो अखण्ड चिन्मय चिद्घन वह हमें प्राप्त हो ।।१४।।
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