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________________ F- -- - -- -- -- -- -- -- - -- -- -- - T - - - - - -- -- -- -- - -- -- -- -- - -- r - - - - - -- - - - - --- - - अन्य जो सभासद हैं उन्हें भी दिखाता और, दुष्ट अष्ट कर्मों के बंधन को तोड़ता।। जाने लोकालोक को पै निज में मगन रहे, विकसित शुद्ध नित्य निज अवलोकता। ऐसो ज्ञानवीर धीर मंग भरे मन में, स्वयं ही उदात्त और अनाकुल सुशोभता ।।३३।। (हरिगीत) हे भव्यजन! क्या लाभ है इस व्यर्थ के बकवाद से। अब तो रुको निज को लखो अध्यात्म के अभ्यास से ।। यदि अनवरत छहमास हो निज आतमा की साधना । तो आतमा की प्राप्ति हो सन्देह इसमें रंच ना ।।३४।। जिस वस्तु से जो बने, वह हो वही न अन्य । स्वर्णम्यान तो स्वर्ण है, असि है उससे अन्य ।।३८।। वर्णादिक जो भाव हैं, वे सब पुद्गल जन्य । एक शुद्ध विज्ञानघन आतम इनसे भिन्न ।।३९।। कहने से घी का घड़ा, घड़ा न घीमय होय। कहने से वर्णादिमय जीव न तन्मय होय ।।४०।। स्वानुभूति में जो प्रगट, अचल अनादि अनन्त । स्वयं जीव चैतन्यमय, जगमगात अत्यन्त ।।४१।। - - - --- - - - - - --- - - ----------------- - - - - - - - - - - - चैतन्यशक्ति से रहित परभाव सब परिहार कर। चैतन्यशक्ति से सहित निजभाव नित अवगाह कर ।। है श्रेष्ठतम जो विश्व में सुन्दर सहज शुद्धात्मा । अब उसी का अनुभव करो तुम स्वयं हे भव्यातमा ।।३५।। - - - - (सवैया इकतीसा) मूर्तिक अमूर्तिक अजीव द्रव्य दो प्रकार, इसलिए अमूर्तिक लक्षण न बन सके। सोचकर विचारकर भलीभांति ज्ञानियों ने, ___कहा वह निर्दोष लक्षण जो बन सके। अतिव्याप्ति अव्याप्ति दोषों से विरहित, चैतन्यमय उपयोग लक्षण है जीव का। अत: अवलम्ब लो अविलम्ब इसका ही, क्योंकि यह भाव ही है जीवन इस जीव का ।।४।। - - - (दोहा) चित् शक्ति सर्वस्व जिन केवल वे हैं जीव । उन्हें छोड़कर और सब पुद्गलमयी अजीव ।।३६।। वर्णादिक रागादि सब हैं आतम से भिन्न । अन्तर्दृष्टि देखिये दिखे एक चैतन्य ।।३७।। - - - - - - (५) __ - - - - - - - - --
SR No.008378
Book TitleSamaysara kalash Padyanuwada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2002
Total Pages35
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size228 KB
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