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(हरिगीत) बाह्यार्थ ने ही पी लिया निजव्यक्तता से रिक्त जो। वह ज्ञान तो सम्पूर्णत: पररूप में विश्रान्त है।। पर से विमुख हो स्वोन्मुख सद्ज्ञानियों का ज्ञान तो। ‘स्वरूप से ही ज्ञान है' - इस मान्यता से पुष्ट है।।२४८।। इस ज्ञान में जो झलकता वह विश्व ही बस ज्ञान है। अबुध ऐसा मानकर स्वच्छन्द हो वर्तन करें ।। अर विश्व को जो जानकर भी विश्वमय होते नहीं।
वे स्याद्वादी स्वत:क्षालित तत्त्व का अनुभव करें ।।२५१।।। इन्द्रियों से जो दिखे ऐसे तनादि पदार्थ में। एकत्व कर हों नष्ट जन निजद्रव्य को देखें नहीं।। निजद्रव्य को जो देखकर निजद्रव्य में ही रत रहें। वे स्याद्वादी ज्ञान से परिपूर्ण हो जीवित रहें ।।२५२।। सब द्रव्यमय निज आतमा यह जगत की दुर्वासना । बस रत रहे परद्रव्य में स्वद्रव्य के भ्रमबोध से ।। परद्रव्य के नास्तित्व को स्वीकार सब द्रव्य में।
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वे स्याद्वादी जगत में निजतत्त्व का अनुभव करें ।।२४९।। छिन-भिन्न हो चहुँ ओर से बाह्यार्थ के परिग्रहण से ।। खण्ड-खण्ड होकर नष्ट होता स्वयं अज्ञानी पशु । एकत्व के परिज्ञान से भ्रमभेद जो परित्याग दें। वे स्याद्वादी जगत में एकत्व का अनुभव करें।।२५०।। जो मैल ज्ञेयाकार का धो डालने के भाव से। स्वीकृत करें एकत्व को एकान्त से वे नष्ट हों ।। अनेकत्व को जो जानकर भी एकता छोड़े नहीं।
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निजज्ञान बल से स्याद्वादी रत रहें निजद्रव्य में ।।२५३।। परक्षेत्रव्यापीज्ञेय-ज्ञायक आतमा परक्षेत्रमय । यह मानकर निजक्षेत्र का अपलाप करते अज्ञजन ।। जो जानकर परक्षेत्र को परक्षेत्रमय होते नहीं। वे स्याद्वादी निजरसी निजक्षेत्र में जीवित रहें।।२५४।। मैं ही रहूँ निजक्षेत्र में इस भाव से परक्षेत्रगत । जो ज्ञेय उनके साथ ज्ञायकभाव भी परित्याग कर ।। हों तुच्छता को प्राप्त शठ पर ज्ञानिजन परक्षेत्रगत ।
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