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________________ F - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - क्योंकि मैं तो वर्त रहा हूँ स्वयं स्वयं के। शुद्ध बुद्ध चैतन्य परम निष्कर्म आत्म में ।।२३०।। सब कर्मों के फल से सन्यासी होने से। आतम से अतिरिक्त प्रवृत्ति से निवृत्त हो।। चिद्लक्षण आतम को अतिशय भोगरहा हूँ। यह प्रवृत्ति ही बनी रहे बस अमित इस काल तक।।२३१।। (वसंततिलका) रे पूर्वभावकृत कर्मजहरतरु के। अज्ञानमय फल नहीं जो भोगते हैं।। - - (हरिगीत) है अन्य द्रव्यों से पृथक् विरहित ग्रहण अर त्याग से। यहज्ञाननिधिनिज में नियत वस्तुत्वकोधारण किये ।। है आदि-अन्त विभाग विरहित स्फुरित आनन्दघन । हो सहज महिमाप्रभाभास्वरशुद्ध अनुपम ज्ञानघन ।।२३५।। जिनने समेटा स्वयं ही सब शक्तियों को स्वयं में। सब ओर से धारण किया हो स्वयं को ही स्वयं में ।। मानो उन्हीं ने त्यागने के योग्य जो वह तज दिया। अर जो ग्रहण के योग्य वह सब भी उन्हीं नेपा लिया ।।२३६ ।। - - - - - - - - - - - (११४) - - - - - - - - - - -- - - (सोरठा) ज्ञानस्वभावी जीव परद्रव्यों से भिन्न ही। कैसे कहें सदेह जब आहारक ही नहीं ।।२३७ । शुद्धज्ञानमय जीव, के जब देह नहीं कही। तब फिर यह द्रवलिंग, शिवमग कैसे हो सके।।२३८।। - - अर तृप्त स्वयं में चिरकाल तक वे। निष्कर्म सुखमय दशा को भोगते हैं।।२३२।। रे कर्मफल से सन्यास लेकर। सद्ज्ञान चेतना को निज में नचाओ।। प्याला पियो नित प्रशमरस का निरन्तर । सुख में रहो अभी से चिरकालतक तुम ।।२३३।। (दोहा) अपने में ही मगन है अचल अनाकुल ज्ञान । यद्यपि जाने ज्ञेय को तदपि भिन्न ही जान ।।२३४ ।। - - - - - - - - (दोहा) मोक्षमार्ग बस एक ही रत्नत्रयमय होय । अत: मुमुक्षु के लिए वह ही सेवन योग्य ।।२३९।। - - - - - - - - _____(११५)------- - L -
SR No.008378
Book TitleSamaysara kalash Padyanuwada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2002
Total Pages35
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size228 KB
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