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________________ F- -- --- --- -- -- --- --- -- --- - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - r - - - - -- - - -- - अरे राग की उत्पत्ति में परद्रव्यों को। । एकमात्र कारण बतलाते जो अज्ञानी ।। शुद्धबोध से विरहित वे अंधे जन जग में। । अरे कभी भी मोहनदी से पार न होंगे ।।२२१।। जैसे दीपक दीप्य वस्तुओं से अप्रभावित । वैसे ही ज्ञायक ज्ञेयों से विकृत न हो।। - फिर भी अज्ञानीजन क्यों असहज होते हैं। न जाने क्यों व्याकुल हो विचलित होते हैं ।।२२२ ।। - -- सबका कर परित्याग हृदय से वचन-काय से। अवलम्बन लेता हूँ परम निष्कर्मभाव से ।।२२५ ।। मोहभाव से भूतकाल में कर्म कि ये जो। उन सबका ही प्रतिक्रमण करके अब मैं तो।। वर्त रहा हूँ अरे निरन्तर स्वयं स्वयं के। शुद्ध बुद्ध चैतन्य परम निष्कर्म आत्म में ।।२२६॥ मोहभाव से वर्तमान में कर्म किये जो। उन सबका आलोचन करके ही अब मैं तो।। वर्त रहा हूँ अरे निरन्तर स्वयं स्वयं के। शुद्ध बुद्ध चैतन्य परम निष्कर्म आत्म में ||२२७।। - - - - -- - - -- - - --- _____ _ -- - -- -- -- -- ------------ (११२) - - - - - - - - - - - - - | राग-द्वेष से रहित भूत-भावी कर्मों से मुक्त । । स्वयं को वे नित ही अनुभव करते हैं।। | और स्वयं में रत रह ज्ञानमयी चेतनता। न को धारण कर निज में नित्य मगन रहते हैं ।।२२३।। | ज्ञान चेतना शुद्ध ज्ञान को करे प्रकाशित । शुद्धज्ञान को रोके नित अज्ञान चेतना ।। और बंध की कर्ता यह अज्ञान चेतना। यही जान चेतो आतम नित ज्ञान चेतना ।।२२४।। | भूत भविष्यत वर्तमान के सभी कर्म कृत । । कारित अर अनुमोदनादि मैं सभी ओर से ।। नष्ट हो गया मोहभाव जिसका ऐसा मैं। करके प्रत्याख्यान भाविकों का अब तो।। वर्त रहा हूँ अरे निरन्तर स्वयं स्वयं के। शुद्ध बुद्ध चैतन्य परम निष्कर्म आत्म में ।।२२८।। तीन काल के सब कर्मों को छोड़ इसतरह। परमशुद्धनिश्चयनय का अवलम्बन लेकर ।। निर्मोही हो वर्त रहा हूँ स्वयं स्वयं के। शद्ध बद्ध चैतन्य परम निष्कर्म आत्म में ।।२२९।। कर्म वृक्ष के विषफल मेरे बिन भोगे ही। खिर जायें बस यही भावना भाता हूँ मैं ।। - - - - - - - - - - - - - - - -----___(१११) -- - - - - - - - - - - - - - - - - - -- 1
SR No.008378
Book TitleSamaysara kalash Padyanuwada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2002
Total Pages35
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size228 KB
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