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समाधि और सल्लेखना
कि - "यद्यपि शरीर तुम्हारा नहीं है; किन्तु - इस शरीर के निमित्त से मनुष्य पर्याय में शुद्धोपयोग का साधन भली प्रकार होता है, यह जानकर इसे रखने का उद्यम करना उचित है न?"
समकिती उत्तर देता है - "हे भाई! यह जो तुमने कहा? वह तो हम भी जानते हैं; किन्तु यदि संयमादि रहते हुए शरीर रहे तो भले रहे। हमें शरीर से बैर थोड़े ही है, परन्तु यदि शरीर की रहने की स्थिति न हो तब तो उससे ममत्व छोड़कर अपने संयमादि गुण निर्विघ्न रूप से रखना ही उचित है; क्योंकि हमें दोनों ही तरह से आनंद है। जब तक शरीर रहेगा तब तक यहाँ शुद्धोपयोग की आराधना करेंगे और यदि शरीर नहीं रहेगा तो परलोक में कोई जाकर वहाँ शुद्धोपयोग की आराधना करेंगे।"
इस प्रकार ज्ञानी को कहीं/कभी/कोई आकुलता नहीं होती।
ज्ञानी विचार करता है कि - "मेरी स्थिति तो सोलहवें स्वर्ग के उन कल्पवासी देवों की तरह है जो कौतूहलवश तमाशा हेतु मध्यलोक में आते हैं। किसी गरीब आदमी के शरीर में प्रविष्ट हो जाते हैं और उसकी सी क्रियायें करने लगते हैं। जैसे कि - वह कभी तो लकड़ी का गट्ठर शिर पर रखकर बाजार में बेचने जाता है और कभी भिखारी के वेष धरकर भीख माँगने लगता है आदि। इसप्रकार जब वह यहाँ आकर नाना स्वांग बनाकर कौतूहल करता है। तब भी वह कल्पवासी देव अपने सोलहवें स्वर्ग की विभूति को एक क्षण को भी नहीं भूलता और यहाँ की स्वांग की अवस्थाओं से अहंकार-ममकार नहीं करता। इसीप्रकार ज्ञानी अपने सिद्ध समान शुद्ध आत्मा को कभी नहीं भूलता। भले ही वह संसार अवस्था में नाना पर्यायें धारण करता है और उन पर्यायों में नाना वेश धारण करता है, नाना चेष्टायें करता है, फिर भी वह अपनी मोक्ष लक्ष्मी को नहीं भूलता।
सम्यग्दृष्टि पुरुष अपनी आयु थोड़ी जानकर दान-पुण्य जो कुछ
समाधि और सल्लेखना करना होता है, स्वयं करता है। जिन पारिवारिक एवं धार्मिक व्यक्तियों से परमार्श करना होता है, उनसे परामर्श करके निःशल्य हो जाता है।
इसप्रकार परम शान्त परिणामों से समाधिमरण में तत्पर रहकर अपना मानव जीवन सार्थक कर लेता है। समाधि सार : पण्डित दीपचन्दजी
स्व-समय समाधि का स्पष्टीकरण करते हुए समाधिसार में पण्डित दीपचन्दजी ने जो लिखा है उसका सार यह है कि - स्व-समय समाधि आत्मा के ध्यान से होती है और आत्म ध्यान एकाग्रचिन्ता निरोध से होता है तथा एकाग्र चिन्तानिरोध राग-द्वेष के मिटने से होता है। वह राग-द्वेष इष्ट-अनिष्ट की मिथ्या कल्पनायें मिटने पर मिटता है। इसलिए जो जीव स्व-समय समाधि के इच्छुक हैं, उन्हें सर्व प्रथम इष्ट-अनिष्ट की मिथ्या कल्पनायें करना छोड़ना होगा। तभी राग-द्वेष कम होंगे। इष्टानिष्टपना छोड़ना कठिन नहीं है; क्योंकि पर पदार्थ इष्टानिष्ट है ही नहीं।
पण्डित टोडरमलजी ने मो.मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ .... में स्पष्ट लिखा है कि - "अज्ञानी रागवश पर पदार्थों को भला जानकर इष्ट कल्पना करता और द्वेषवश बुरा मानकर पर पदार्थ में अनिष्ट कल्पना करता है; जबकि कोई भी पदार्थ भला-बुरा है ही नहीं।"
अतः ऐसे भी राग-द्वेष त्याग कर अन्य चिन्ता का निरोध करके आत्मा के ध्यान में उपयोग को केन्द्रित करने से सम्यक् समाधि होती है।
जीव ज्यों-ज्यों निज तत्त्व को जानता है, आत्मा के स्वरूप को जानता है, त्यों-त्यों आत्मा की विशुद्धि वृद्धिंगत होकर केवलज्ञान के अवलम्बन से निज की महिमा जानकर आनन्द की अनुभूति करता है। बस यही समाधि का स्वरूप है। समाधिमरण साधकों के कुछ उदाहरण :
जिन्होंने अपने आत्मा को आत्मस्वरूप में ही स्थिर किया है -