________________
३४
समाधि और सल्लेखना
पण्डित गुमानीराम जो लिखते हैं उसका संक्षिप्त सार इसप्रकार है -
“समाधि नाम निःकषाय का है, शान्त परिणामों का है। कषाय रहित शान्त परिणामों से मरण होना समाधिमरण है। सम्यग्ज्ञानी पुरुष का यह सहज स्वभाव है कि वह समाधिमरण की ही इच्छा करता है। मरण समय आने पर वह सावधान होता है।
सम्यग्दृष्टि के हृदय में आत्मा का स्वरूप प्रगट रूप से प्रतिभासित होता है। वह अपने को चैतन्य धातु का पिण्ड, अनन्तगुणों से युक्त जानता है। वह परद्रव्य के प्रति रंचमात्र भी रागी नहीं होता । वह अपने निज स्वरूप को रागादि रहित, ज्ञाता-दृष्टा, परद्रव्य से भिन्न, अविनाशी जानता है और परद्रव्य को क्षणभंगुर, अ-शास्वत, अपने स्वभाव से भिन्न जानता है। इसकारण सम्यग्ज्ञानी को मरणभय नहीं होता।
सम्यग्ज्ञानी मरण के समय इसप्रकार भावना करता है कि मुझे ऐसे चिन्ह दिखाई देने लगे हैं कि अब इस शरीर की स्थिति थोड़ी है, इसलिए मुझे सावधान होना उचित है, देर करना उचित नहीं है।
ज्ञानी विचार करता है कि - मैं ज्ञाता-दृष्टा रहकर देह के होनेवाले क्षण-क्षण के परिवर्तन को देख रहा हूँ, जान रहा हूँ। मैं तो इसका पड़ौसी हूँ, स्वामी नहीं। मैं इसका कर्ता भी नहीं हूँ। मैं तो इसमें होनेवाले परिवर्तन को तमासगीर की तरह देख रहा हूँ। शरीर के अनंत परमाणुओं का परिणमन इतने दिन एक सा रहा - यह आश्चर्य है। अब वही परमाणु अन्य रूप परिणमन करने लगे - इसमें क्या आश्चर्य? मेरा स्वरूप तो चेतनास्वभावी है, शास्वत है। मेरा मरण नहीं होता।
तीन लोक में जितने पदार्थ हैं, वे सब अपने-अपने स्वभाव रूप परिणमन करते हैं कोई किसी का कर्ता-भोक्ता नहीं है। स्वयं उत्पन्न होता है, स्वयं ही विघट जाता है, स्वयं ही मिलता है, स्वयं ही बिछुड़ जाता है। ऐसी स्थिति में मैं इसका कर्ता-भोक्ता कैसे हो सकता हूँ?
समाधि और सल्लेखना
मैं तो इस ज्ञायक स्वभाव का ही कर्ता-भोक्ता हूँ और इसी का वेदन व अनुभव करता हूँ। इस शरीर के जाने से मेरा कुछ भी बिगाड़ नहीं और इसके रहने से कुछ भी सुधार या लाभ नहीं है। - ऐसा जानकर मैं शरीर एवं शरीर से संबंधित सभी जड़-चेतन संबंध छोड़ता हूँ।
देखो! मोह का स्वभाव? ये सब संयोगी सामग्री प्रत्यक्ष ही पर वस्तु हैं, इससे कुछ भी लाभ-हानि नहीं है तो भी यह संसारी अज्ञानी जीव इन्हें अपना समझकर इन्हें इष्ट मानकर रखना चाहता है अथवा अनिष्ट मानकर इनसे द्वेष करके हटाना चाहता है।
ज्ञानी जानते हैं कि - "मैं तो अनादिकाल से अविनाशी चैतन्य देव हूँ।" उस पर काल (मृत्यु) का जोर नहीं चलता। अतः मुझे मृत्यु का भय नहीं है। जो मरता है वह तो पहले से मरा हुआ ही है और जो जीवित है वह भी पहले से ही जीवित है। मैं अपने निज चैतन्य स्वभाव में स्थित हूँ, अकम्ब हूँ, ज्ञानामृत से परिपूर्ण हूँ।
मेरे सर्वांग में चैतन्य ही चैतन्य इसप्रकार व्याप्त है जैसे नमक की डली में खारापना व्याप्त है। चैतन्य स्वरूप आकाश के समान निर्मल है, अविनाशी है, जैसे आकाश को तलवार से काटा नहीं जा सकता, अग्नि-पानी से जलाया-गलाया नहीं जा सकता, उसी प्रकार मेरा चैतन्य आत्मा अग्नि-पानी से जलता-गलता नहीं है। आकाश की तरह अमूर्तिक, निर्विकार और अखण्ड पिण्ड है। हाँ, आकाश और मुझमें यह अन्तर है कि वह जड़ है और मैं चैतन्य पदार्थ हूँ।
ज्ञानी मरणासन्न स्थिति में विचार करता है कि - 'मुझे दोनों ही परिस्थितियों में आनन्द है। शरीर रहेगा तो फिर शुद्धोपयोग की आराधना करूँगा और शरीर नहीं रहेगा तो परलोक में जाकर शुद्धोपयोग की आराधना करूँगा।
कोई रागी जीव मरण सन्मुख सन्यासी सम्यग्दृष्टि को समझाता है
18