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समाधि और सल्लेखना
समाधि और सल्लेखना हैं। मौत अचानक आ जाएगी, वह नोटिस देकर नहीं आएगी।
देह का संयोग अनित्य है और भगवान आत्मा ध्रुव नित्य तत्त्व है। आत्मा का कभी नाश नहीं होता, देह और आत्मा स्वभाव से तो भिन्न ही हैं; मात्र निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध के कारण पर्याय अपेक्षा से एकक्षेत्रावगाहरूप साथ रह रहे हैं। वस्तुतः तो वे दोनों अपने-अपने स्वक्षेत्र में ही रहते हैं। आकाश के एक क्षेत्र में जो दोनों साथ रह रहे हों, उनके पृथक् होने को मौत कहते हैं। मृत्यु जरूर आनेवाली है, ऐसा बारम्बार याद करके अन्तरंग में स्वसन्मुखता का पुरुषार्थ कर ! जिससे 'अब हम अमर भये, न मरेंगे' - ऐसी सावधानी में तू समाधिपूर्वक मरण कर सके।
निज त्रिकाल शुद्ध चैतन्य भगवान तो सदा अमर ही है। देह के सम्बन्ध की स्थिति पूर्ण होने की अपेक्षा मरण कहते हो तो भले कहो, परन्तु अनादिनिधन सत् ज्ञायकप्रभु की स्थिति कभी पूर्ण नहीं होती, वह तो सदा अमर ही है। ___'सिर पर मौत के नगाड़े बज रहे हैं, सिर पर मौत मँडरा रही है।' ऐसा बारम्बार स्मरण में लाकर तू भी सदा उस अमर निज शुद्धात्मतत्त्व के प्रति उग्र आलम्बन का जोरदार पुरुषार्थ कर !
मरण के समय कदाचित् निर्विकल्प शुद्धोपयोग न भी हो; भले ही विकल्प हों, परन्तु स्वभाव के आश्रय से परिणति में प्रगट हुई जो सतत वर्तती शुद्धि की धारा है, वह एकाग्रता और समाधि ही है।
ज्ञानी को दृष्टि-अपेक्षा और जितनी स्वरूप स्थिरता है, उसकी अपेक्षा निर्विकल्पधारा सतत वर्त रही है, परन्तु देह छूटने के समय उपयोग निर्विकल्प ही हो, उपयोग में विकल्प का अंश भी न रहे - ऐसा नहीं होता। कभी-कभी विकल्प हो सकते हैं, साधक-मूर्च्छित भी
हो सकता है; परन्तु अन्तर में स्वभाव के आश्रय से परिणति में प्रगट हुई एकाग्रता है; इसलिए मरणकाल में उसका समाधिपूर्वक देह छूटेगा। ज्ञानियों को ख्याल में है कि यद्यपि देह छूटने के प्रसंग में विकल्प
आ सकते हैं, देहाश्रित (ब्रेन हेमरेज आदि) मूर्च्छित होने जैसी बीमारी भी संभव है तथापि उन्हें अन्तरंग में समाधि है। __ मोक्षमार्गप्रकाशक में आता है कि 'मुनिजनों को स्त्री आदि का परीषह होने पर वे उसे जानते ही नहीं, मात्र अपने स्वरूप का ही ज्ञान करते रहते हैं - ऐसा मानना मिथ्या है। वे उसे जानते तो हैं, परन्तु रागादिक नहीं करते।'
इसीप्रकार ज्ञानियों को मरणकाल में भूमिकानुसार विकल्प होने पर भी अन्तरंग में वीतरागभाव होने से समाधिपूर्वक देह छूटती है।
श्रीमद् राजचन्द्र ने भी अपने अन्त समय में अपने छोटे भाई से कहा था - 'मनसुख! माँ को चिन्तातुर मत होने देना । अब, मैं स्वरूप में लीन होता हूँ।' इसप्रकार उन्हें स्वरूप की दृष्टि और अनुभव तो था, परन्तु माँ को चिन्ता न हो - ऐसा विकल्प आ गया, सो भाई से कह दिया। फिर आँख बंद करने पर थोड़ी देर में देह छूट गया।
प्रश्न :- कोई ज्ञानी मरण के काल में बेसुध हों अथवा बकवास कर रहे हों तो भी क्या उन्हें समाधि होती है?
उत्तर :- कदाचित् ज्ञानियों को इन्द्रिय-निमित्तक ज्ञान में किञ्चित् फेरफार हो जाए, जरा बेसुधपना हो जाए, तथापि उनके अन्दर ज्ञानधारा सतत् वर्तती होने से समाधि है।
समाधिशतक में ऐसा आता है कि भेदज्ञानी अन्तरात्मा निद्रा अवस्था में होने पर भी कर्म-बन्धन से मुक्त होते हैं। समाधिमरण का स्वरूप : पण्डित गुमानीराम