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इस उपर्युक्त आशंका का समाधान धर्मकथा, कथा, सत्कथा और विकथा की परिभाषाओं से हो जाता है। (१) धर्मकथा :- वीतरागता की पोषक और तत्त्वज्ञान की कथा करना तो धर्मकथा है ही; किन्तु धर्म सहित कामकथायें और अर्थकथायें भी धर्मकथा कहलाती हैं, क्योंकि इन कथाओं के अन्त में अर्थ को व्यर्थ बताकर, उससे विरक्त कराया जाता है और काम का फल कुगति का कारण बताकर कामियों को निष्काम होने की दिशा में मोड़ने को प्रेरित किया जाता है, काम पर विजय पाने की एवं धर्ममार्ग में अग्रसर होने की प्रेरणा दी जाती है । अतः धर्मसहित कामकथा एवं अर्थकथा भी धर्मकथा में प्रयोजनभूत होने से धर्मकथा कहलाती है ।
(२) कथा : - मोक्ष पुरुषार्थ में उपयोगी होने से धर्म, अर्थ एवं काम का कथन करना कथा है ।
(३) सत्कथा :- जिसमें धर्म के स्वरूप का विशेष निरूपण होता है, उसे सत्कथा कहते हैं। धर्म के फलस्वरूप जिन अभ्युदयों की प्राप्ति होती है, उन अभ्युदयों में अर्थ और काम भी है। अतः धर्म का फल दिखाने के लिए अर्थ व काम का कथन करना भी सत्कथा कहलाती है; किन्तु यह अर्थ व काम का कथन यदि धर्मरहित हो तो वह कथा, विकथा की श्रेणी में चली जाती है।
(४) विकथा :- यद्यपि अर्थ की चर्चा आजीविका हेतु आवश्यक है, काम सन्तानोत्पत्ति का हेतु है; | किन्तु यदि उसमें न्यायनीति न हो और वह लोकमान्य न हो एवं दण्डनीय अपराध की श्रेणी में आता हो तो उसकी चर्चा भी विकथा है तथा वह पापास्रव का ही कारण है ।
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कथा के अंग :- द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, तीर्थ, फल और प्रकृत- ये सत्कथा के सात अंग हैं। द्रव्य :- इसमें छह द्रव्यों का निरूपण होता है । क्षेत्र • ऊर्ध्व, मध्य व अधोलोक क्षेत्र हैं। काल :- भूत-भविष्य वर्तमान ये तीन काल हैं। भाव :- क्षयोपशम, क्षायिक- ये दो भाव हैं । तीर्थ :• जिनेन्द्रदेव का चरित्र ही तीर्थ है । फल :- तत्त्वज्ञान का लाभ फल है। प्रकृत :- वर्णनीय कथावस्तु प्रकृत है। जिसमें ये सातों अंग पाये जायें, वह सत्कथा है।
( आदिपुराण, प्रथम सर्ग, पद्य ११७ से १२५, पृष्ठ- १७-१८)
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