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सत्कथा सुनने/पढ़ने का फल बताते हुए आचार्य कहते हैं कि सत्कथाओं के श्रोताओं और पाठकों को जो पुण्य का संचय होता है, उससे उन्हें पहले तो स्वर्ग आदि अभ्युदयों की प्राप्ति होती है और फिर क्रम से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
जगद्गुरु भगवान ऋषभदेव ने समोशरण में सबसे पहले उत्सर्पिणी काल संबंधी त्रेसठ शलाका पुरुषों का चरित्र निरूपण किया। फिर वर्तमान में चल रहे अवसर्पिणी काल संबंधी शलाका पुरुषों का वर्णन किया ।
भगवान ऋषभदेव ने तृतीय काल के अन्त में जो पूर्वकालीन पुराण या इतिहास का कथन किया था वे ही पुराण परम्परागत हम तक पहले मौखिक फिर लिखित रूप में आये हैं, इसीकारण उन्हें आगम भी कहते हैं। आचार्य जिनसेन कहते हैं कि मैंने भी उसी आगम का कथन किया है, इसमें मेरा कुछ भी कर्तृत्व नहीं है।
ऐसा लिखकर आचार्यश्री ने जहाँ एक ओर अपना अकर्तृत्व बताकर लाघवभाव प्रगट किया है, वहीं | दूसरी ओर ग्रन्थ को जिनेन्द्र की वाणी बताकर उसके प्रति पाठकों के हृदय में कई गुणी श्रद्धा भरने का कार्य भी किया है । ग्रन्थ में जो कमी रह गई है उसका उत्तरदायित्व अपने माथे लेकर और जो विशेषता है वह भगवान की वाणी की है, 'उसमें मेरा कुछ कर्तृत्व नहीं' - ऐसा कहकर आचार्यदेव ने जो महानता व्यक्त की है, वह सभी लेखकों को अनुकरणीय है । बात भी यही सच है । यह औपचारिकता नहीं है । अर्हन्त की वाणी होने से भी ये कथानक प्रामाणिक हैं, आचार्य ने ऐसा लिखा भी क्या है, जो पहले नहीं कहा | गया था और किसी ने कुछ नया कहने का दुस्साहस किया भी तो वह छद्मस्थ (अल्पज्ञ ) का कथन होने से श्रद्धेय नहीं हो सकेगा।
लेखकों को स्वयं के द्वारा लिखे गये विषय को भी अपना बताने की जरूरत नहीं; क्योंकि परम्परागत बात को स्वयं समझ लेना और आगामी पीढ़ी तक उसे अपनी भाषा-शैली में पहुँचाने का पुरुषार्थ भी कोई कम बात नहीं है, छोटा काम नहीं है, अतः कथानकों को पाठकों तक पहुँचाने वाले सभी परमगुरु, गुरु और विद्वज्जन महान उपकारी हैं। वे सभी हम जैसे पाठकों और श्रोताओं के लिए परमपूज्य और श्रद्धास्पद हैं ।
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