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१२|| प्रथम पर्व के अन्त में आचार्य जिनसेन प्रस्तुत पौराणिक कथा के अध्ययन की प्रेरणा देते हुए कहते हैं || कि - "आत्मकल्याण चाहनेवालों को इस कथा का श्रद्धान, अध्ययन और स्मरण करना चाहिए। यह पौराणिक कथा पुण्य फल देने के साथ स्वयं पवित्र है, उत्तम है, मंगलरूप है, श्रेष्ठ है, यश प्रदान करनेवाली है और साक्षात् स्वर्ग एवं परम्परा से परमपद प्रदान करनेवाली है। जो इसको श्रद्धा-भक्तिपूर्वक पढ़ता है, | उसके सर्व विघ्न नष्ट हो जाते हैं। खोटे स्वप्न आना बन्द हो जाते हैं और अच्छे स्वप्न आते हैं, इसे पढ़नेसुनने से शुभ शकुन होते हैं।" अत: अपनी शक्ति के अनुसार इस शलाका पुरुष' ग्रन्थ का भी पठन-पाठन स्वयं करें, दूसरों से करावें, तुम्हारा कल्याण होगा।
आचार्य जिनसेन पुनः मंगलस्वरूप भगवान ऋषभदेव और महावीर स्वामी को स्मरण करके तथा गौतम गणधर और आचार्यों का स्मरण करके उन्हें अकारण बन्धु आदि विशेषणों से अलंकृत करते हुए समवसरण की स्तुति करते हैं तथा समवसरण को पुण्य का आश्रय स्थान, पशुओं के परस्पर बैर को भुलाकर बैठने का स्थान बताते हैं तथा समवसरण की महिमा का वर्णन करते हुए राजा श्रेणिक के मुख से मानो अपने भूतकाल के पापों का प्रायश्चित्त करते हुए कहते हैं कि - "मैंने पूर्व पर्यायों में अज्ञानवश बड़े-बड़े दुराचरण किए, अब उन पापों के शमन करने के लिए यह धर्मकथा लिखकर प्रायश्चित ले रहा हूँ।"
यहाँ राजा श्रेणिक के रूप में प्रत्येक पाठक, श्रोता और ग्रन्थकार भी मानो महावीर भगवान से प्रार्थना करते हैं कि - "हे प्रभो ! हम अज्ञानियों ने पूर्व में हिंसा, झूठ, चोरी, परस्त्री सेवन और अनेक प्रकार के | आरंभ-परिग्रह आदि के द्वारा घोर पापों का संचय किया है। और तो क्या? हमने मुनिराज जैसे धर्मात्माओं का अनादर और उपेक्षा करने में भी आनन्द माना, जिससे निःसन्देह हमें कुगतियों में जाने जैसा पापबन्ध हुआ होगा । उस पाप के शमन हेतु हम शलाका पुरुषों के पावन और प्रेरणाप्रद कथानक आपके द्वारा सुनना चाहते हैं, उनके जीवनवृत्त को सुनकर हम अपने पापों का प्रक्षालन करते हुए उन जैसे बनने का पुरुषार्थ करेंगे। अत: आप हमें शलाका पुरुषों का चरित्र कहकर कृतार्थ करें।"
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