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तात्पर्य यह है कि अपने में ही पंचपरमेष्ठी को देखना- दोनों में भेद न करना, भक्त और भगवान में भेद दिखाई न देना दोनों में समानता का अनुभव अभेद भक्ति है । और दोनों में भेद का अनुभव करना उनकी ला मूर्ति बनाकर पूजना स्वयं को भक्त और उन्हें भगवान के रूप में देखना, स्वयं को दीन और उन्हें दीनानाथ के रूप में देखना भेदभक्ति है ।
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भक्तियों में सर्वश्रेष्ठ अभेदभक्ति है । यही युक्ति (पूर्ण विवेक) सहित भक्ति है, इस भक्ति में भावुकता को स्थान नहीं है।
भगवान ऋषभदेव के समवसरण में ८४ गणधर, २० हजार केवलज्ञानी, ४ हजार ७ सौ ५० श्रुतकेवली थे, ४ हजार १५० उपाध्याय, ९ हजार अवधिज्ञानी मुनिवर, १२ हजार ७ सौ ५० मन:पर्ययज्ञान के धारी मुनि विराजमान थे, २० हजार छह सौ विक्रिया ऋद्धिधारी तथा १२ हजार ७ सौ ५० वादि मुनि थे। कुल मुनियों एवं गणधरों की संख्या ८४ हजार ८४ थी ।
ब्राह्मी आदि ३ लाख ५० हजार आर्यिका माताएँ थीं, ३ लाख श्रावक, ५ लाख श्राविकाएँ थीं । अगणित पशु-पक्षी भी भगवान की वाणी का श्रवण कर रहे थे।
इसप्रकार तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के द्वारा एक हजार वर्ष कम एक लाख पूर्व तक इस भारत भूमि पर विहार करके धर्म का प्रचार-प्रसार होता रहा ।
जब उनके मोक्ष गमन में १४ दिन शेष रहे, तब पौष शुक्ला पूर्णिमा के दिन कैलाश पर्वत पर योग निरोध प्रारंभ हुआ, दिव्यध्वनि रुक गई, समवसरण विघट गया । ठीक उसी दिन अयोध्या नगरी में महाराजा भरत | ने स्वप्न देखा कि सुमेरु पर्वत ऊँचा उठकर सिद्धालय तक पहुँच रहा है। युवराज अर्ककीर्ति ने ऐसा स्वप्न | देखा कि महा औषधि का वृक्ष मनुष्यों के जन्म-मरण रोग को मिटाकर उर्द्धगमन कर रहा है । इसीप्रकार | गृहपति, सेनापति आदि ने भी भगवान ऋषभदेव के मोक्षगमन सूचक स्वप्न देखे । स्वप्न में गृहपति ने देखा
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