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रत्नत्रय विधान
महादोष सम्यग्दर्शन का है भवसागर दुःखदायी।
सुगुरु उपासक सच्चे श्रावक पाते निजपद सुखदायी ।।५।। ॐ ह्रीं श्री कुगुरुपासकअनायतनविहीनसम्यग्दर्शनाय अयं निर्वपामीति स्वाहा । ६. कुधर्म-उपासक-अनायतन रहित सम्यग्दर्शन
जो कुधर्म के सतत प्रशंसक तथा उपासक प्राणी हैं। सच्चे आत्मधर्म को भूले महामूढ़ अज्ञानी हैं ।। महादोष सम्यग्दर्शन का भवसमुद्रवर्धक दुःखमय ।
जो सुधर्म का सेवन करते पाते शाश्वतपद सुखमय ।।६।। ॐ ह्रीं श्री कुधर्मउपासकअनायतनविहीनसम्यग्दर्शनाय अयं निर्वपामीति स्वाहा।
(कुण्डलिया) षट् अनायतन दोष तज, पाऊँ समकित पूर्ण । जिन-आगम की छाँव में, श्रद्धा हो आपूर्ण ।। श्रद्धा हो आपूर्ण अर्घ्य अर्पित करता हूँ। अब प्रभु ऐसे दोष न हों निश्चय करता है ।। सम्यग्दर्शन शुद्ध प्राप्ति का करूँ में यतन ।
निज आयतन पाकर तज दै मैं षट अनायतन ।। ॐ ह्रीं श्री षड्अनायतनदोषविहीनसम्यग्दर्शनाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। तीन मूढ़ता रहित सम्यग्दर्शन
(ताटंक) देवमूढ़ता गुरुमूढ़ता लोकमूढ़ता सब त्यागूं । ये तीनों मूढ़ता समझकर इनसे सदा दर भागें ।। वीतरागता के स्वरूप को जानें दूर करूँ अज्ञान । रहूँ अमूढदृष्टि हे स्वामी सुदृढ़ करूँ निज का श्रद्धान ।। १. देवमूढ़ता रहित सम्यग्दर्शन
(वीर छंद) रागी-द्वेषी देवों की पूजन यह देवमूढ़ता जान । रोगमुक्ति या पुत्रप्राप्ति या धनवांछा हित का अज्ञान ।। अष्टादश दोषों से विरहित ही होते हैं सच्चे देव ।
वीतराग देवों की पूजन सच्चा सुख देती स्वयमेव ।।१।। ॐ ह्रीं श्री देवमूढ़तारहितसम्यग्दर्शनाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
श्री सम्यग्दर्शन पूजन २. गुरुमूढ़ता रहित सम्यग्दर्शन
(ताटंक) जो सग्रन्थ आरम्भ परिग्रह युत हैं पाखंडी हिंसक । इनकी सेवा विनय वन्दना गुरूमूढ़ता भववर्धक ।। सुगुरु स्वरूप समझकर उनको ही में करूँ सदैव नमन।
क्रोधी मानी यशलोभी गुरूओं से सदा बचँ भगवन ।।२।। ॐ ह्रीं श्री गुरुमूढ़तारहितसम्यग्दर्शनाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा । ३. लोकमूढ़ता रहित सम्यग्दर्शन
(वीरछंद) लोकमूढ़ता देखादेखी चलूँ न मूढ़ों के अनुसार । भलीभाँति से करूँ परीक्षा लोकमूढ़ता कर परिहार ।।१।। चाहे जैसी तनमुद्रा हो उसके आगे झुकूँ नहीं। वीतरागमुद्रा ही पूजू लोकमूढ़ मैं बनूँ नहीं।।२।। अबतक बाँट तराजू पूजे पूजी मैंने कलम-दवात। खाते बही तिजोरी पूजी लक्ष्मी पूजी सारी रात ।।३।। नदीनह्वन में धर्म मानकर सागर भी पूजे बहुबार । व्यंतर पूजे नवग्रह पूजे पूजे प्रभ खोटे त्यौहार ।।४।। धन पूजाहित दीप जलाए देहली द्वार भूमि पूजी। आड़े-टेढ़े पत्थर पूजे वटतरु सभी दिशा पूजी ।।५।। सभी दिशाएँ समान होती सभी वार हैं एक समान । इनमें अच्छे-बुरे भेद से प्रगटित होता है अज्ञान ।।६।। बिल्ली ने रास्ता काटा तो दुःख से डरकर घर आया। छींक हुई तो महामूढ़ता से वापस घर में आया ।।७।। आदि-आदि देखादेखी लोकमूढ़ता करता हूँ। सच्चा मार्ग छोड़कर उन्मागों पर ही पग धरता हूँ॥८॥ अब प्रभु लोकमूढ़ता तज दूँ बनूँ अमूढदृष्टि निर्दोष ।
सम्यग्दर्शन सुदृढ़ करूँ प्रभु पाऊँ शाश्वत सुख-संतोष ।।९।। ॐ ह्रीं श्री लोकमूढ़तारहितसम्यग्दर्शनाय अयं निर्वपामीति स्वाहा।
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