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________________ - - - - - - - - - - - - - - - - - - -- - - - 1 - - - - सर्वज्ञ जिन के ज्ञान का माहात्म्य तीनों काल के। जाने सदा सब अर्थ युगपद् विषम विविध प्रकार के।।५१।। सवार्थ जाने जीव पर उनरूप न परिणमित हो। बस इसलिए है अबंधक ना ग्रहे ना उत्पन्न हो ।।५२।। नमन करते जिन्हें नरपति सुर-असुरपति भक्तगण। मैं भी उन्हीं सर्वज्ञजिन के चरण में करता नमन ।।२।। सुखाधिकार मूर्त और अमूर्त इन्द्रिय अर अतीन्द्रिय ज्ञान-सुख। इनमें अमूर्त अतीन्द्रियी ही ज्ञान-सुख उपादेय हैं ।।५३।। • आचार्य जयसेन की टीका में प्राप्त गाथा २ स्वयं से सर्वांग से सर्वार्थग्राही मलरहित । अवग्रहादि विरहित ज्ञान ही सुख कहा जिनवरदेव ने ।।५९।। अरे केवलज्ञान सुख परिणाममय जिनवर कहा। क्षय हो गये हैं घातिया रे खेद भी उसके नहीं।।६।। अर्थान्तगत है ज्ञान लोकालोक विस्तृत दृष्टि है। नष्ट सर्व अनिष्ट एवं इष्ट सब उपलब्ध हैं।।६१।। घातियों से रहित सुख ही परमसुख यह श्रवण कर। भी न करें श्रद्धान तो वे अभवि भवि श्रद्धा करें ।।२।। नरपती सुरपति असुरपति इन्द्रियविषयदवदाह से। पीड़ित रहें सह सके ना रमणीक विषयों में रमें ।।६३।। -------__(१२) - - - - - - - - - -- - अमूर्त को अर मूर्त में भी अतीन्द्रिय प्रच्छन्न को। स्व-पर को सर्वार्थ को जाने वही प्रत्यक्ष है ।।५४।। यह मूर्ततनगत जीव मूर्तपदार्थ जाने मत से। अवग्रहादिकपूर्वक अर कभी जाने भी नहीं ।।५५।।। पौद्गलिक स्पर्श रस गंध वर्ण अर शब्दादि को। भी इन्द्रियाँ इक साथ देखो ग्रहण कर सकती नहीं ।।५६।। इन्द्रियाँ परद्रव्य उनको आत्मस्वभाव नहीं कहा। अर जो उन्हीं से ज्ञात वह प्रत्यक्ष कैसे हो सके?||५७।। जो दूसरों से ज्ञात हो बस वह परोक्ष कहा गया। केवल स्वयं से ज्ञात जो वह ज्ञान ही प्रत्यक्ष है ।।५८।। ------- पंचेन्द्रियविषयों में रती वे हैं स्वभाविक दुःखीजन । दुःख के बिना विषविषय में व्यापार हो सकता नहीं ।।६४।। । इन्द्रिय विषय को प्राप्त कर यह जीव स्वयं स्वभाव से। सुखरूप हो पर देह तो सुखरूप होती ही नहीं।।६५।। । स्वर्ग में भी नियम से यह देह देही जीव को। सुख नहीं दे यह जीव ही बस स्वयं सुख-दुखरूप हो ।।६६।। तिमिरहर हो दृष्टि जिसकी उसे दीपक क्या करें। जब जिय स्वयं सुखरूप हो इन्द्रिय विषय तब क्या करें ।।६७।। जिसतरह आकाश में रवि उष्ण तेजरु देव है। बस उसतरह ही सिद्धगण सब ज्ञान सुखरु देव हैं ।।६८।। ____ (१५)
SR No.008371
Book TitlePravachansara Padyanuwada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages21
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size160 KB
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