SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 6
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राधान्य है त्रैलोक्य में ऐश्वर्य ऋद्धि सहित हैं। तेज दर्शन ज्ञान सुख युत पूज्य श्री अरिहंत हैं।।३।। हो नमन बारम्बार सुरनरनाथ पद से रहित जो। अपुनर्भावी सिद्धगण गुण से अधिक भव रहित जो ।।४।। शुभपरिणामाधिकार देव-गुरु-यति अर्चना अर दान उपवासादि में। अर शील में जो लीन शुभ उपयोगमय वह आतमा ।।६९।। अरे शुभ उपयोग से जो युक्त वह तिर्यग्गति । अर देव मानुष गति में रह प्राप्त करता विषयसुख ।।७।। • आचार्य जयसेन की टीका में प्राप्त गाथा३-४ इन्द्रियसुख सुख नहीं दुख है विषम बाधा सहित है। है बंध का कारण दुखद परतंत्र है विच्छिन्न है।।७६।। पुण्य-पाप में अन्तर नहीं है - जो न माने बात ये। संसार-सागर में भ्रमें मद-मोह से आच्छन्न वे ।।७७॥ विदितार्थजन परद्रव्य में जो राग-द्वेष नहीं करें। शुद्धोपयोगी जीव वे तनजनित दुःख को क्षय करें ।।७८।। सब छोड़ पापारंभ शुभचारित्र में उद्यत रहें। पर नहीं छोड़े मोह तो शुद्धातमा को ना लहें ।।७९।। हो स्वर्ग अर अपवर्ग पथदर्शक जिनेश्वर आपही। लोकाग्रथित तपसंयमी सुर-असुर वंदित आपही ।।५।। • आचार्य जयसेन की टीका में प्राप्त गाथा (१८) ------------------- उपदेश से है सिद्ध देवों के नहीं है स्वभावसुख । तनवेदना से दुखी वे रमणीक विषयों में रमे ।।७१।। नर-नारकी तिर्यंच सुर यदि देहसंभव दुःख को। अनुभव करें तो फिर कहो उपयोग कैसे शुभ-अशुभ? ।।७२।। वज्रधर अर चक्रधर सब पुण्यफल को भोगते। देहादि की वृद्धि करें पर सुखी हों ऐसे लगे।।७३।। शुभभाव से उत्पन्न विध-विध पुण्य यदि विद्यमान हैं। तो वे सभी सरलोक में विषयेषणा पैदा करें।।७४।। अरे जिनकी उदित तृष्णा दुःख से संतप्त वे। हैं दुखी फिर भी आमरण वे विषयसुख ही चाहते ।।७५।। (१७)____ देवेन्द्रों के देव यतिवरवृषभ तुम त्रैलोक्यगुरु। जो नमें तुमको वे मनुज सुख संपदा अक्षय लहें ।।६।। द्रव्य गुण पर्याय से जो जानते अरहंत को। वे जानते निज आतमा दुगमोह उनका नाश हो ।।८।। जो जीव व्यपगत मोह हो - निज आत्म उ प ल धि कर । वे छोड़ दें यदि राग रुष शुद्धात्म उपलब्धि करें ।।८१।। सर्व ही अरहंत ने विधि नष्ट कीने जिस विधी। सबको बताई वही विधि हो नमन उनको सब विधी ।।८।। अरे समकित ज्ञान सम्यक्चरण से परिपूर्ण जो। • आचार्य जयसेन की टीका में प्राप्त गाथा ६-७ - - - - - - - - - - - - - - - - - -------__(१९)
SR No.008371
Book TitlePravachansara Padyanuwada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages21
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size160 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy