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सप्रदेशी अप्रदेशी मूर्त और अमूर्त को। अनुत्पन्न विनष्ट को जाने अतीन्द्रिय ज्ञान ही।।४१।। ज्ञेयार्थमय जो परिणमे ना उसे क्षायिक ज्ञान हो। कहें जिनवरदेव कि वह कर्म का ही अनुभवी ।।४२।। जिनवर कहें उसके नियम से उदयगत कर्माश हैं। वह राग-द्वेष-विमोह बस नित वंध का अनुभव करे ।।४३।। यत्न बिन ज्यों नारियों में सहज मायाचार त्यों। हो विहार उठना-बैठना अर दिव्यध्वनि अरिहंत के ।।४४।। पुण्यफल अरिहंत जिन की क्रिया औदयिकी कही। मोहादि विरहित इसलिए वह क्षायिकी मानी गई ।।४५।।
वे अर्थ ना हों ज्ञान में तो ज्ञान न हो सर्वगत । ज्ञान है यदि सर्वगत तो क्यों न हों वे ज्ञानगत ।।३१।। केवली भगवान पर ना ग्रहे छोड़े परिणमें। चहं ओर से सम्पूर्णत: निरवशेष वे सब जानते ।।३२।। श्रुतज्ञान से जो जानते ज्ञायकस्वभावी आतमा। श्रुतकेवली उनको कहें ऋषिगण प्रकाशक लोक के।।३३।। जिनवरकथित पुद्गल वचन ही सूत्र उसकी ज्ञप्ति ही। है ज्ञान उसको केवली जिनसूत्र की ज्ञप्ति कहें।।३४।। जो जानता सो ज्ञान आतम ज्ञान से ज्ञायक नहीं। स्वयं परिणत ज्ञान में सब अर्थ थिति धारण करें।।३५।।
______(८)_____ - - - - - - - - - - - - - - - - - - - जीव ही है ज्ञान ज्ञेय त्रिधावर्णित द्रव्य हैं। वे द्रव्य आतम और पर परिणाम से संबंद्ध हैं ।।३६।। असद्भूत हों सद्भूत हों सब द्रव्य की पर्याय सब । सद्ज्ञान में वर्तमानवत् ही हैं सदा वर्तमान सब ।।३७।। पर्याय जो अनुत्पन्न हैं या नष्ट जो हो गई हैं। असद्भावी वे सभी पर्याय ज्ञानप्रत्यक्ष हैं।।३८।। पर्याय जो अनुत्पन्न हैं या हो गई हैं नष्ट जो। फिर ज्ञान की क्या दिव्यता यदि ज्ञात होवें नहीं वो ।।३९।। जो इन्द्रियगोचर अर्थ को ईहादिपूर्वक जानते। वे परोक्ष पदार्थ को जाने नहीं जिनवर कहें।।४०।।
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यदी स्वयं स्वभाव से शुभ-अशुभरूप न परिणमें। तो सर्व जीवनिकाय के संसार भी ना सिद्ध हो ।।४६।। जो तात्कालिकअतात्कालिकविचित्र विषमपदार्थ को। चहुं ओर से इक साथ जाने वही क्षायिक ज्ञान है ।।४७।। जाने नहीं युगपद् त्रिकालिक अर्थ जो त्रैलोक्य के। वह जान सकता है नहीं पर्यय सहित इक द्रव्य को ।।४८।। इक द्रव्य को पर्यय सहित यदि नहीं जाने जीव तो। फिर जान कैसे सकेगा इक साथ द्रव्यसमूह को।।४९।। पदार्थ का अवलम्ब ले जो ज्ञान क्रमश: जानता। वह सर्वगत अर नित्य क्षायिक कभी हो सकता नहीं ।।५।।
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