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________________ - - - - - - - - - - - - - - । - शुद्धोपयोगाधिकार शद्धोपयोगी जीव के है अनूपम आत्मोत्थसुख। है नंत अतिशयवंत विषयातीत अर अविछिन्न है।।१३।। हो वीतरागी संयमी तपयुक्त अर सूत्रार्थ विद् । शुद्धोपयोगी श्रमण के समभाव भवसुख-दुक्ख में ।।१४।। शुद्धोपयोगी जीव जग में घात घातीकर्मरज। स्वयं ही सर्वज्ञ हो सब ज्ञेय को हैं जानते ।।१५।। त्रैलोक्य अधिपति पूज्य लब्धस्वभाव अर सर्वज्ञ जिन । स्वयं ही हो गये तातें स्वयम्भू सब जन कहें ।।१६।। यद्यपि उत्पाद बिन व्यय व्यय बिना उत्पाद है। तथापी उत्पादव्ययथिति का सहज समवाय है ।।१७।। --------- ___ (४) ज्ञानाधिकार केवली भगवान के सब द्रव्य गुण-पर्याययुत । प्रत्यक्ष हैं अवग्रहादिपूर्वक वे उन्हें नहीं जानते ।।२१।। सर्वात्मगुण से सहित हैं अर जो अतीन्द्रिय हो गये। परोक्ष कुछ भी है नहीं उन केवली भगवान के ।।२२।। यह आत्म ज्ञानप्रमाण है अर ज्ञान ज्ञेयप्रमाण है। हैं ज्ञेय लोकालोक इस विधि सर्वगत यह ज्ञान है ।।२३।। अरे जिनकी मान्यता में आत्म ज्ञानप्रमाण ना। तो ज्ञान से वह हीन अथवा अधिक होना चाहिए ।।२४।। ज्ञान से हो हीन अचेतन ज्ञान जाने किसतरह। ज्ञान से हो अधिक जिय किसतरह जाने ज्ञान बिन ।।२५।।। - - - - - - - । सभी द्रव्यों में सदा ही होंय रे उत्पाद-व्यय। ध्रुव भी रहे प्रत्येक वस्तु रे किसी पर्याय से ।।१८।। असुरेन्द्र और सुरेन्द्र को जो इष्ट सर्व वरिष्ठ हैं। उन सिद्ध के श्रद्धालुओं के सर्व कष्ट विनष्ट हों।।१।। अतीन्द्रिय हो गये जिनके ज्ञान सुख वे स्वयंभू । जिन क्षीणघातिकर्म तेज महान उत्तम वीर्य हैं।।१९।। अतीन्द्रिय हो गये हैं जिन स्वयंभू बस इसलिए। केवली के देहगत सुख-दुःख नहीं परमार्थ से ।।२०।। -------- हैं सर्वगत जिन और सर्व पदार्थ जिनवरगत कहे। जिन ज्ञानमय बस इसलिए सब ज्ञेय जिनके विषय हैं ।।२६।। रे आतमा के बिना जग में ज्ञान हो सकता नहीं। है ज्ञान आतम किन्तु आतम ज्ञान भी है अन्य भी ।।२७।। रूप को ज्यों चक्षु जाने परस्पर अप्रविष्ठ रह। त्यों आत्म ज्ञानस्वभाव अन्य पदार्थ उसके ज्ञेय हैं ।।२८।। प्रविष्ठ रह अप्रविष्ठ रह ज्यों चक्षु जाने रूप को। त्यों अतीन्द्रिय आत्मा भी जानता सम्पूर्ण जग ।।२९।। ज्यों दूध में है व्याप्त नीलम रत्न अपनी प्रभा से। त्यों ज्ञान भी है व्याप्त रे निश्शेष ज्ञेय पदार्थ में ॥३०॥ .___(७) • आचार्य जयसेन की टीका में प्राप्त गाथा १ ___________(५).
SR No.008371
Book TitlePravachansara Padyanuwada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages21
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size160 KB
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