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उन सभी को युगपत तथा प्रत्येक को प्रत्येक को। मैं न, विदमान मानस क्षेत्र के अरहंत को ।।३।। अरहंत सिद्धसमूह गणधरदेवयुत सब सूरिगण। अर सभी पाठक साधुगण इन सभी को करके नमन ।।४।। परिशुद्ध दर्शनज्ञानयुत समभाव आश्रम प्राप्त कर। निर्वाणपद दातार समताभाव को धारण करूँ ।।५।। निर्वाण पावै सुर-असुर-नरराज के वैभव सहित । यदि ज्ञान-दर्शनपूर्वक चारित्र सम्यक् प्राप्त हो ।।६।। चारित्र ही बस धर्म है वह धर्म समताभाव है। दृगमोह-क्षोभविहीन निज परिणाम समताभाव है ।।७।।
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प्रवचनसार पद्यानुवाद ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार मंगलाचरण एवं पीठिका
(हरिगीत) सुर असुर इन्द्र नरेन्द्र वंदित कर्ममल निर्मलकरन । वृषतीर्थ के करतार श्री वर्द्धमान जिन शत-शत नमन ।।१।। अवशेष तीर्थकर तथा सब सिद्धगण को कर नमन । मैं भक्तिपूर्वक नमूं पंचाचारयुत सब श्रमणजन ।।२।।
जिसकाल में जो दरव जिस परिणाम से हो परिणमित । हो उसीमय वह धर्मपरिणत आतमा ही धर्म है।।८।। स्वभाव से परिणाममय जिय अशुभ परिणत हो अशुभ। शुभभाव परिणत शुभ तथा शुधभाव परिणत शुद्ध है ।।९।। परिणाम बिन ना अर्थ है अर अर्थ बिन परिणाम ना। अस्तित्वमय यह अर्थ है बस द्रव्यगुणपर्यायमय ।।१०।। प्राप्त करते मोक्षसुख शुद्धोपयोगी आतमा। पर प्राप्त करते स्वर्गसुख हि शभोपयोगी आतमा ।।११।। अशुभोपयोगी आतमा हो नारकी तिर्यग कुनर । संसार में रुलता रहे अर सहस्त्रों दुख भोगता ।।१२।।
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