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________________ प्रवचनसार कासार छहों द्रव्य, प्रमेय अर्थात् लोकालोक। जो कुछ भी जगत में है, वह सब प्रमेय है, ज्ञेय है। इसप्रकार संपूर्ण जगत को दो भागों में विभाजित कर देखनेवाला यह ग्रन्थाधिराज प्रवचनसार आचार्य कुन्दकुन्द की प्रौढ़तम कृति है। ____ इस कृति को आचार्य जयसेन मध्यम रुचिवाले शिष्यों के लिए लिखी गई कृति मानते हैं। वे कहते हैं कि संक्षिप्त रुचिवाले शिष्यों के लिए पञ्चास्तिकाय और मध्यम रुचिवाले शिष्यों के लिए प्रवचनसार लिखा गया है। समयसार शुद्धात्मा का प्रतिपादक ग्रन्थाधिराज है और अष्टपाहुड़ में आचार्य कुन्दकुन्द के प्रशासकरूप के दर्शन होते हैं । नियमसार उन्होंने अपनी भावना के लिए बनाया है; वह उनके दैनिक पाठ का साधन था। इसतरह दार्शनिकों की दृष्टि में यदि प्रवचनसार सबसे महत्त्वपूर्ण है तो यह स्वाभाविक ही है; क्योंकि जैनदर्शन की जो वस्तुव्यवस्था है, वस्तु का स्वरूप है; उसका प्रतिपादन जितनी सूक्ष्मता से इस प्रवचनसार ग्रंथाधिराज में प्राप्त होता है; वैसा प्रतिपादन कुन्दकुन्द के अन्य ग्रन्थों में तो अलभ्य है ही; संपूर्ण जिनागम में भी बहुत ही दुर्लभता से प्राप्त होता है। यह जगत जो ज्ञेयतत्त्व है, जिसे जानने की बात इस प्रवचनसार में अत्यंत गहराई से की गई है; उसे कैसे जाना जाय, उसे जानने का उपाय क्या है ? इसके उत्तर में आचार्य उमास्वामी तत्त्वार्थसूत्र में निम्नांकित सूत्र लिखते हैं - 'प्रमाणनयैरधिगमः।' प्रमाण व नयों के द्वारा वस्तु का स्वरूप जाना जाता है। नय जैनदर्शन के अतिरिक्त अन्य किसी भी दर्शन में नहीं हैं; किन्तु प्रमाण सभी दर्शनों में हैं, चाहे भारतीय दर्शन हो, चाहे पाश्चात्य - सभी में प्रमाण पाया जाता है। जिसे हम न्यायशास्त्र कहते हैं; वे सब प्रमाणव्यवस्था के ग्रंथ हैं। परीक्षामुख, प्रमेयरत्नमाला, प्रमेयकमलमार्तण्ड, आप्तमीमांसा, अष्टशती तथा अष्टसहस्त्री ये जितने भी न्याय के ग्रंथ हैं या न्याय के नाम पर जो पहला प्रवचन ग्रन्थ पढ़ाये जाते हैं; वे लगभग सभी प्रमाणव्यवस्था के प्रतिपादक ग्रंथ हैं। ये सभी ग्रन्थ इस बात का प्रतिपादन करते हैं कि वस्तु को जाननेवाले ज्ञान का वास्तविक स्वरूप क्या है ? जिसप्रकार पाश्चात्य दार्शनिकों ने संपूर्ण विश्व को दो भागों में विभाजित किया; उसीप्रकार आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने इस ग्रंथाधिराज में मुख्यरूप से दो विभाग किए - (१) ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन (२) ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन प्रथम तो जाननेवाले को जानो; फिर जाननेवाले ने क्या-क्या जाना - यह जानो । जब इन दोनों का प्रतिपादन सम्पन्न हुआ; जब ज्ञानतत्त्व एवं ज्ञेयतत्त्व प्रज्ञापन का मंदिर बनकर तैयार हुआ; तब आचार्यदेव ने उस पर शिखर बनाने के लिए चरणानुयोगसूचक चूलिका का निर्माण किया। अर्थात् जिस तत्त्वज्ञान को हमने गहराई से जाना है; अब उसे हम अपने जीवन में कैसे उतारें - इसके वर्णन के लिए उन्होंने दो अधिकारों के पश्चात् एक चरणानुयोग चूलिका नामक अधिकार लिखा। वास्तव में जब हम चूलिका कहते हैं; तब वह ग्रंथ का वैसा भाग नहीं होता है, जैसा भाग उसके अधिकार हुआ करते हैं। आचार्य कहते हैं कि इन दो अधिकारों के पश्चात् भी कुछ कथन शेष है। वस्तु-व्यवस्था का निरूपण हो गया है; परन्तु जिनने उस वस्तुव्यवस्था के अनुसार अपना आचरण बनाया है; उनका आचरण कैसा होता है, कैसा होना चाहिए ? यह सब वर्णन आचार्यदेव ने चरणानुयोग चूलिका में किया है। चूलिका की परिभाषा आचार्य जयसेन स्वयं इसप्रकार देते हैं - ___ “उक्त विषय का प्रतिपादन, अनुक्त विषय का प्रतिपादन तथा उक्त और अनुक्त दोनों के मिले हुए रूप का प्रतिपादन जिसमें किया जाता है; उसका नाम है चूलिका।” इस कथन का आशय यह है कि इसमें किसी भी विषय का क्रमबद्ध प्रतिपादन नहीं होता है।
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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