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________________ प्रवचनसार का सार प्रवचनसार का सार - पहला प्रवचन प्रवचनसार परमागम आचार्य कुन्दकुन्ददेव का विशिष्टतम ग्रंथ है। जिनेन्द्र भगवान की दिव्यध्वनि का सार यह प्रवचनसार ग्रंथ निरंतर २००० वर्ष से अध्ययन-अध्यापन का विषय बना हुआ है। यद्यपि समयसार आचार्य श्री कुन्दकुन्ददेव की सर्वोत्कृष्ट कृति मानी जाती है, तथापि विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में समयसार को स्थान प्राप्त नहीं हो सका; जबकि प्रवचनसार परमागम को सैंकड़ों वर्षों से विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में रहने का सम्मान प्राप्त है; क्योंकि इसकी जो प्रतिपादन शैली है, वह विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम के अनुकूल है। जहाँ दर्शनशास्त्र का अध्ययन-अध्यापन होता है, ऐसे जितने भी विश्वविद्यालय हैं; वहाँ दर्शनशास्त्र के पाठ्यक्रम को दो भागों में बाँटा जाता है, जिसे हम प्रमाणव्यवस्था एवं प्रमेयव्यवस्था कहते हैं। इस प्रवचनसार ग्रन्थ में भी प्रथम महाधिकार ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन एवं द्वितीय महाधिकार ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन नाम से है। यह वर्गीकरण दर्शनशास्त्र के वर्गीकरण के अनुकूल ही है; इसीकारण इस ग्रन्थ को विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में स्थान प्राप्त रहा है। सम्पूर्ण विश्व को उक्त दो भागों में विभाजित करके देखना आधुनिक दर्शनशास्त्र की प्रमुख विशेषता है और यह विधि जैनदर्शन के लिए भी सर्वाधिक अनुकूल है। प्रथम वह जाननेवाला तत्त्व, जिससे सारे जगत का ज्ञान होता है, जिसे हम ज्ञानतत्त्व कहते हैं तथा दूसरा वह ज्ञेयतत्त्व, जो उस ज्ञान के द्वारा जाना जाता है। जो कुछ भी ज्ञान के द्वारा जाना जाता है, उन सभी को ज्ञान की अपेक्षा ज्ञेय एवं प्रमाण की अपेक्षा प्रमेय कहा जाता है। प्रमेय अर्थात्
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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