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________________ प्रकाशकीय अध्यात्मजगत के बहुश्रुत विद्वान डॉ. हुकमचन्दजी भारिल्ल की नवीनतम कृति ‘प्रवचनसार का सार’ आपके हाथों में देते हुए हार्दिक प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है। डॉ. भारिल्ल उन विरले विद्वानों में अग्रगण्य हैं, जिनके प्रवचनों का प्रत्यक्ष लाभ तो समाज लेती ही है; अब साधना चैनल के माध्यम से देशविदेश में बैठे लोग भी प्रातः ६.३५ पर आपके प्रभावी प्रवचनों का लाभ ले रहे हैं। वे जितने कुशल प्रवक्ता हैं, लेखन के क्षेत्र में भी उनका कोई सानी नहीं है । यही कारण है कि आज उनका साहित्य देश की प्रमुख आठ भाषाओं में लगभग ४० लाख की संख्या में प्रकाशित होकर घर-घर में पहुँच चुका है। उन्होंने अबतक लगभग सात हजार पृष्ठों का सत्साहित्य रचा है और लगभग १० हजार पृष्ठों का सम्पादन किया है, जो सभी प्रकाशित है। आपने आज के बहुचर्चित विषयों पर तो लिखा ही है, जैनदर्शन के लगभग सभी महत्त्वपूर्ण विषयों पर कलम चलाकर उन्हें सर्वांग रूप से प्रस्तुत किया है। उन्होंने गत २९ वर्षों में आत्मधर्म एवं वीतराग-विज्ञान के सम्पादकीय लेखों के रूप में जो कुछ भी लिखा है, वह सब पुस्तकाकार प्रकाशित होकर जिन - अध्यात्म की अमूल्य निधि बन गया है और स्थाई साहित्य के रूप में प्रतिष्ठित हो चुका है । आपकी अनेक कृतियों के हिन्दी भाषा के अतिरिक्त गुजराती, मराठी, कन्नड़, तमिल तथा अंग्रेजी भाषा में अनुवादित पुस्तकों के संस्करण भी प्रकाशित हो चुके हैं। इस शताब्दी में डॉ. भारिल्ल की तुलना में जैन समाज का शायद ही कोई ऐसा विद्वान होगा, जिसका साहित्य देश की विभिन्न भाषाओं में विपुल भाग में प्रकाशित होकर पढा जाता हो। गत वर्ष डॉ. भारिल्ल की ‘समयसार का सार' पुस्तक प्रकाशित की गई थी, जिसका समाज में समुचित समादर हुआ। इस पुस्तक से ऐसे जिज्ञासुओं अधिक लाभ उठाया, जो कम से कम समय में समयसार की विषय-वस्तु से परिचित होना चाहते थे। ऐसा भी अनुभव में आया है कि 'समयसार का सार' पढने से अनेक पाठक 'समयसार अनुशीलन' के पाँचों भाग पढने के लिए प्रेरित हुए हैं। चूँकि प्रवचनसार का विषय गूढ, गम्भीर एवं सूक्ष्म है। इसे समझने के लए बौद्धिक पात्रता की आवश्यकता भी अधिक है। विशेष रुचि एवं खास लगन के बिना प्रवचनसार के विषय को समझना सहज नहीं है । प्रवचनसार अनुशीलन का प्रथम भाग समाज के हाथों में पहुँच चुका है। यदि वे उसका धैर्यपूर्वक अध्ययन करें तो रहस्य की गुत्थी सहज खुलती नजर आएगी। यह तो सर्वविदित ही है कि प्रवचनसार ग्रन्थाधिराज के सार को डॉ. भारिल्ल ने २५ घंटों में प्रवचनों के रूप में प्रस्तुत किया था; जो इन्टरनेट पर भी उपलब्ध हैं और jainworld.com पर सुने जा सकते हैं। उक्त प्रवचन पहले कैसेट से कागज पर लिखाये गये और फिर उनको कम्प्यूटर पर कम्पोज कराया गया। उसके बाद उसका गहराई से अवलोकन डॉक्टर साहब ने स्वयं किया और उक्त सम्पूर्ण सामग्री को संपादित कर इस रूप में प्रस्तुत कर दिया है। उनके अथक् परिश्रम का ही परिणाम है कि यह आपके हाथों में इस रूप में प्रस्तुत है। प्रस्तुत प्रकाशन को लागत से भी कम मूल्य में उपलब्ध कराने में जिन दातारों का सहयोग प्राप्त हुआ है, उनकी सूची पृथक् से दी गई है। कृति को आकर्षक कलेवर में प्रस्तुत करने का श्रेय प्रकाशन विभाग के मैनेजर श्री अखिल बंसल को जाता है एवं सुन्दर टाइपसैंटिग का कार्य श्री दिनेश शास्त्री के द्वारा किया गया है। अतः ट्रस्ट उनका आभारी है। सभी पाठक प्रवचनसार का सार ग्रहण कर अपने जीवन को सार्थक करें - इसी भावना के साथ विराम लेता हूँ। - ब्र. यशपाल जैन, एम.ए. प्रकाशनमंत्री, पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, जयपुर
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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