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प्रवचनसार का सार
उक्त अर्थात् कही गई बात । वह विषय जो मूलवस्तु के प्रतिपादन में कहने से रह गया है; उसे कहते हैं - अनुक्त । कुछ बातें ऐसी होती हैं, जो कह दी गई हैं। फिर भी उनपर विशेष ध्यानाकर्षित करने के लिए उनका दुबारा कहा जाना आवश्यक प्रतीत होता है। कुछ विशेष कथन ऐसे भी होते हैं, जिन्हें समाविष्ट करके ही कथन किया जा सकता है। भले ही हम अनुक्त बात कहना चाहते हैं; परन्तु जो उक्त अर्थात् अभी हमने कह दी है; उसके बिना उस अनुक्त अर्थात् न कही गई बात को कहना संभव ही नहीं होता है; अत: उसे हम उक्तानुक्त संकीर्ण व्याख्यान कहते हैं।
इसप्रकार यह सुनिश्चित हुआ कि उक्त व्याख्यान, अनुक्त व्याख्यान एवं उक्तानुक्त संकीर्ण व्याख्यान जहाँ किया जाता है, उसे चूलिका कहते हैं। इसमें यह नहीं कहा जा सकता कि आप विषयान्तर हो गए; क्योंकि चूलिका कहते ही उसे हैं कि जिसमें सबकुछ कहा जा सकता है। ___इसप्रकार आचार्यदेव ने चरणानुयोगसूचक चूलिका नामक तीसरा अधिकार बनाया।
आचार्य जयसेन ने भी कुन्दकुन्द के समयसार, प्रवचनसार और पञ्चास्तिकाय - इन तीन ग्रन्थों पर टीकाएँ लिखी हैं। उन्होंने तीनों टीकाओं का एक ही नाम 'तात्पर्यवृत्ति' रखा है; जबकि आचार्य अमृतचन्द्र ने समयसार की टीका का नाम आत्मख्याति, प्रवचनसार की टीका का नाम तत्त्वप्रदीपिका तथा पश्चास्तिकाय की टीका का नाम समयव्याख्या रखा है।
प्रवचनसार के तीन अधिकारों को जयसेनाचार्य अपनी तात्पर्यवृत्ति टीका में सम्यग्ज्ञानाधिकार, सम्यग्दर्शनाधिकार तथा सम्यग्चारित्राधिकार के नाम से संबोधित करते हैं। जयसेनाचार्य ने पातनिकाओं को मध्यमध्य में समाविष्ट करके क्या कह दिया है एवं आगे क्या कहेंगे' - इस भाँति विषयवस्तु को समग्रतः स्पष्ट किया है।
पहला प्रवचन
चरणानुयोग चूलिका नामक अधिकार को सम्यग्चारित्राधिकार नाम से जो महत्त्व प्राप्त होता है; वह महत्त्व चूलिका या परिशिष्ट कहने से नहीं। यही कारण है कि आचार्य जयसेन ने इस अधिकार का नाम सम्यक्चारित्र अधिकार रखा।
प्रथम महाधिकार में प्रमाणव्यवस्था का वर्णन है अर्थात् ज्ञानतत्त्व का वर्णन है; अत: आचार्य जयसेन का उसे सम्यग्ज्ञानाधिकार कहना स्वाभाविक ही है। जब प्रथम अधिकार को सम्यग्ज्ञानाधिकार एवं अंतिम अधिकार को सम्यक्चारित्राधिकार से कह दिया तो अब मध्य के अधिकार को सम्यग्दर्शनाधिकार कहने के अतिरिक्त कोई उपाय शेष नहीं रहता है।
आचार्य उमास्वामी ने जब रत्नत्रय का वर्गीकरण किया; तब उन्होंने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र - इसप्रकार का क्रम रखा; जबकि जयसेनाचार्य ने प्रवचनसार की इस टीका में प्रथम अधिकार का नामकरण सम्यग्ज्ञान अधिकार किया और दूसरे अधिकार को सम्यग्दर्शन अधिकार नाम दिया। मोक्षमार्ग-प्रकाशक ग्रंथ में भी इस सन्दर्भ में उल्लेख है कि श्रद्धान के पूर्व ज्ञान होना अत्यंत आवश्यक है; क्योंकि अज्ञात का श्रद्धान तो गधे के सींग के समान है। इसलिए सबसे पहले वस्तु के स्वरूप को जानना अत्यंत आवश्यक है।
प्रवचनसार ग्रंथाधिराज पर संस्कृत भाषा में दो महान टीकाएँ लिखी गईं। एक, आज से १००० वर्ष पूर्व आचार्य अमृतचन्द्र ने तत्त्वप्रदीपिका' नामक टीका लिखी और दूसरी, उसके ३०० वर्ष पश्चात्, आज से ७०० वर्ष पूर्व आचार्य जयसेन ने 'तात्पर्यवृत्ति' नामक टीका लिखी। ___ आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा लिखी गई तत्त्वप्रदीपिका टीका एक प्रौढ़तम कृति है; अत: कुछ लोग इसे जटिल भी कहते हैं। लोगों की इसी समस्या को ध्यान में रखकर आचार्य जयसेन ने तात्पर्यवृत्ति नामक सरल-सुबोध टीका लिखी है। तात्पर्यवृत्ति नाम से भी यह ज्ञात हो