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प्रवचनसार का सार
प्रवेश नहीं कर सकते। यह वज्र की दीवार मात्र बाहर-बाहर नहीं है, अपितु आत्मा के प्रत्येक प्रदेश पर खचित है अर्थात् भगवान आत्मा में ऐसी शक्ति विद्यमान है कि परद्रव्य उसमें प्रवेश नहीं कर सकते, उसी शक्ति का नाम नास्तित्व धर्म है। अस्तित्व-नास्तित्वधर्म आत्मा को ऐसी सामर्थ्य प्रदान करता है कि जिसके कारण आत्मा में अस्तित्व और नास्तित्व - दोनों धर्म एकसाथ रहते हैं। ____ आत्मा के अवक्तव्य धर्म के कारण आत्मा की स्थिति वाणी में पूरी तरह नहीं आ सकती, यह वाणी की कमजोरी नहीं है, अपितु आत्मा का ही एक ऐसा धर्म है, जिसके कारण आत्मद्रव्य वाणी में पूर्णरूप से कहने में नहीं आ पाता।
'अस्तित्वधर्म और अवक्तव्यधर्म' - ये दोनों आत्मा में एकसाथ रहें - ऐसी सामर्थ्य को प्रदान करनेवाला अस्तित्व-अवक्तव्यधर्म है; इसीप्रकार 'नास्तित्वधर्म और अवक्तव्यधर्म' - ये दोनों आत्मा में एकसाथ रहें - ऐसी सामर्थ्य को प्रदान करनेवाला नास्तित्व-अवक्तव्यधर्म है और 'अस्तित्वधर्म, नास्तित्वधर्म तथा अवक्तव्यधर्म' - ये तीनों आत्मा में एकसाथ रहें - ऐसी सामर्थ्य को प्रदान करनेवाला अस्तित्वनास्तित्व-अवक्तव्यधर्म है।
विकल्पनय और अविकल्पनय का स्वरूप आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार लिखते हैं - ___ "विकल्पनयेन शिशुकुमारस्थविरैकपुरुषवत् सविकल्पम्, अविकल्पनयेनैकपुरुषमात्रवदविकल्पम् । - आत्मद्रव्य विकल्पनय से बालक, कुमार और वृद्ध - ऐसे एक पुरुष की भाँति सविकल्प हैं और अविकल्पनय से एक पुरुषमात्र की भाँति अविकल्प है।"
भगवान आत्मा में एक भेद' नामक धर्म है और एक 'अभेद' नामक धर्म भी है। भेद नामक धर्म को विकल्पधर्म कहते हैं और अभेद नामक धर्म को अविकल्पधर्म कहते हैं।
पच्चीसवाँ प्रवचन
४०१ जिसप्रकार एक ही पुरुष बालक, जवान और वृद्ध - इन अवस्थाओं का धारण करनेवाला होने से बालक, जवान एवं वृद्ध - ऐसे तीन भेदों में विभाजित किया जाता है; उसीप्रकार भगवान आत्मा भी ज्ञान, दर्शनादि गुणों एवं मनुष्य, तिर्यंच, नरक, देवादि अथवा बहिरात्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा आदि पर्यायों के भेदों में विभाजित किया जाता है।
जिसप्रकार बालक, जवान एवं वृद्ध अवस्थाओं में विभाजित होने पर भी वह पुरुष खण्डित नहीं हो जाता, रहता तो वह एकमात्र अखण्डित पुरुष ही है। उसीप्रकार ज्ञान-दर्शनादि गुणों एवं नरकादि अथवा बहिरात्मादि पर्यायों के द्वारा भेद को प्राप्त होने पर भी भगवान आत्मा रहता तो एक अखण्ड आत्मा ही है।। ___तात्पर्य यह है कि भगवान आत्मा में एक विकल्प नामक धर्म है, जिसके कारण आत्मा गुण-पर्यायों के भेदों में विभाजित होता है और एक अविकल्प नामक धर्म है, जिसके कारण आत्मा अखण्डित रहता है। भेद नामक धर्म को विषय बनानेवाला नय विकल्पनय है और अभेद नामक धर्म को विषय बनानेवाला नय अविकल्पनय है। इन विकल्प
और अविकल्प नयों को क्रमशः भेदनय और अभेदनय भी कहा जा सकता है।
विकल्पनय और अविकल्पनय के बाद चार निक्षेपोंवाले नय हैं। जिनके नाम नामनय, स्थापनानय, द्रव्यनय और भावनय हैं।
आत्मा में नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव नामक धर्म हैं और इन नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव नामक धर्मों को विषय बनानेवाले नयों को क्रमश: नामनय, स्थापनानय, द्रव्यनय और भावनय कहा जाता है।
नामकरण संबंधी समस्त व्यवहार नामनिक्षेप या नामनय से होता है और ये पंचकल्याणक महोत्सव आदि सब स्थापना निक्षेप से होते हैं।
कुछ लोग कहते हैं कि 'मूर्तियाँ नहीं बनानी चाहिए; क्योंकि मुसलमान तोड़ देते हैं। अरे भाई ! यह तो तात्कालिक बात थी; किन्तु
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