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प्रवचनसार का सार
वस्तुव्यवस्था तो त्रैकालिक है। संकट के काल में यदि किसी ने हमारा मकान तोड़ दिया, तो हम यह थोड़े ही कहेंगे कि मकान नहीं बनाना चाहिए अर्थात् बिना मकान के रहना चाहिए। कल कोई यदि हमारे कपड़े छीन लेगा तो फिर हम यह थोड़े ही कहेंगे कि कपड़े नहीं पहनना चाहिए; क्योंकि यदि हम कपड़े पहनेंगे तो लोग छीनेंगे ।
आत्मा को भूत और भावी पर्यायों सहित जानना द्रव्यनय है और वर्तमान पर्यायसहित जानना भावनय है। सेठ के बालक को भविष्य में सेठ ही बनना है; इसकारण उसे वर्तमान में भी सेठ कहना द्रव्यनय का काम है और पूजन करते हुए मुनीम को भी पुजारी कहना भावनय का काम है। इसप्रकार के व्यवहार लोक और शास्त्रों में भी सर्वत्र देखे जा सकते हैं।
इसप्रकार नामनय, स्थापनानय, द्रव्यनय और भावनय - ये चार निक्षेपसंबंधी नय हैं।
तदनन्तर सामान्यनय और विशेषनय का स्वरूप आचार्यदेव इसप्रकार बतलाते हैं -
"सामान्यनयेन हारस्रग्दामसूत्रद्वयापि विशेषनयेन तदेकमुक्ता फलवदव्यापि । - आत्मद्रव्य सामान्यनय से हार-माला - कंठी के डोरे की भाँति व्यापक है और विशेषनय से उसके एक मोती की भाँति अव्यापक हैं।"
यहाँ आचार्यदेव ने सामान्यनय और विशेषनय को समझाने के लिए हार को उदाहरण बनाया है। हार मात्र डोरा और मोती का नाम नहीं है। ये दोनों तो उसमें हैं ही; लेकिन हार में दोनों का एक विशेष अवस्था में गुथा होना भी शामिल है। मोती यदि अलग रखे हो तथा डोरा अलग जगह रखा हो, तो उन्हें हम हार नहीं कह सकते । डोरे में व्यवस्थितरूप से मोतियों के गुथे होने का नाम हार है।
अब यदि उस हार को डोरा की तरफ से देखा जाय, तो हर मोती में डोरा है, इसलिये अखण्ड है; किन्तु यदि डोरा की ओर न देखकर एक
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पच्चीसवाँ प्रवचन
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एक मोती की ओर देखा जाय तो मोती जुदे-जुदे हैं। सामान्यनय से हार एक है और विशेषनय से अनेक । वस्तु में ये दोनों ही बातें एकसाथ हैं। हम जिस धर्म की ओर देखेंगे, हमें वही धर्म दिखाई देगा तथा जिसकी ओर नहीं देखेंगे, वह धर्म दिखाई नहीं देगा ।
इसप्रकार जिस दृष्टि से वस्तु को देखा जाय; वस्तु वैसी ही दिखती है । 'एक को गौण करके एक को देखना यह आत्मा की विशेषता है, दोष नहीं। हम वस्तु को जिस धर्म की ओर से देखेंगे, हमें वह वस्तु उसी धर्ममय दिखाई देगी और जिसकी ओर से उसे नहीं देखेंगे, उस धर्ममय नहीं दिखाई देगी।
इसप्रकार आत्मद्रव्य सामान्यनय से हार-माला-कंठी के डोरे की भाँति व्यापक है और विशेषनय से उसके एक मोती की भाँति अव्यापक है।
इसके बाद आचार्यदेव ने सर्वगतनय और असर्वगतनय की चर्चा की है। आत्मा सबको जानता है, इस दृष्टि से आत्मा सर्वगत है और सभी पदार्थों में जाता नहीं है तथा पदार्थ उसमें आते नहीं हैं, इसलिये वही आत्मा असर्वगत है।
यहाँ पर सर्वगतनय और असर्वगतनय, शून्यनय और अशून्यनय, ज्ञानज्ञेय - अद्वैतनय और ज्ञानज्ञेय-द्वैतनय ये तीन जोड़े हैं।
समयसार में आचार्यदेव ने ४७ शक्तियों में पहले दृशिशक्ति और ज्ञानशक्ति को कहने के बाद फिर सर्वदर्शित्वशक्ति और सर्वज्ञत्वशक्ति को भी कहा ; क्योंकि ज्ञानशक्ति में तो यह बताया था कि जानना आत्मा का स्वभाव है; फिर सर्वज्ञत्वशक्ति में यह बताया कि सबको जानना आत्मा का स्वभाव है। इसीप्रकार दृशिशक्ति और सर्वदर्शित्वशक्ति के संबंध में भी समझना चाहिए।
इसीप्रकार सर्वगतनय और असर्वगतनय, शून्यनय और अशून्यनय, ज्ञानज्ञेय - अद्वैतनय और ज्ञानज्ञेय-द्वैतनय - ये सभी जानने से अर्थात् जानने की प्रक्रिया से ही संबंधित हैं।