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________________ प्रवचनसार का सार ३९८ सप्तभंगी संबंधी सात नय इसप्रकार हैं - (१) अस्तित्वनय, (२) नास्तित्वनय, (३) अस्तित्व-नास्तित्वनय, (४) अवक्तव्यनय, (५) अस्तित्व-अवक्तव्यनय, (६) नास्तित्व-अवक्तव्यनय तथा (७) अस्तित्व-नास्तित्व-अव्यक्तत्वनय। इन नयों के विषयभूत सात भंगों में तीन भंग असंयोगी, तीन भंग द्विसंयोगी और एक भंग त्रिसंयोगी है। ___आत्मा में एक अस्तित्व नाम का धर्म है और एक नास्तित्व नाम का धर्म है; उस अस्तित्व नामक धर्म को विषय बनाने नय को अस्तित्वनय कहते हैं तथा नास्तित्व नामक धर्म को विषय बनानेवाले नय को नास्तित्वनय कहते हैं। आत्मा में एक अस्तित्व-नास्तित्व नामक धर्म भी है, यह धर्म अस्तित्वधर्म तथा नास्तित्वधर्म का मिलाजुला रूप नहीं है, अपितु पृथक् ही है। जिसप्रकार एक 'बिहारी' नाम का व्यक्ति हो, दूसरा 'लाल' नामक व्यक्ति हो तथा तीसरा 'बिहारीलाल' नामक व्यक्ति हो, तो वह बिहारी लाल नामक व्यक्ति बिहारी और लाल नामक व्यक्तियों से भिन्न ही है, उन दोनों का मिला-जुला रूप नहीं। उसीप्रकार आत्मा का अस्तित्वनास्तित्व नाम का धर्म अस्तित्वधर्म और नास्तित्वधर्म से पृथक् ही है। 'अस्तित्वधर्म और नास्तित्वधर्म का मिला-जुला रूप नहीं है।' इसीप्रकार आत्मा में एक 'अवक्तव्य' नामक धर्म है। यहाँ यह नहीं समझना चाहिए कि हम वाणी से बोल नहीं सकते, इसलिए अवक्तव्य है; क्योंकि नहीं बोल पाना हमारी कमजोरी है। उससे आत्मा के धर्म का कोई संबंध नहीं। वास्तव में आत्मा में ही एक ऐसा धर्म है, जिसके कारण आत्मा को वाणी द्वारा नहीं कहा जा सकता है। ___ इसीप्रकार अस्तित्व-अवक्तव्यनय को भी ऐसा नहीं समझना चाहिए कि यह अस्तित्वनय और अवक्तव्यनय का मिलाजुला रूप है। यह एक पच्चीसवाँ प्रवचन स्वतंत्र धर्म है; जिसे विषय बनानेवाले नय को अस्तित्व-अवक्तव्यनय कहते हैं। इसीप्रकार आत्मा में नास्तित्व-अवक्तव्य धर्म और अस्तित्वनास्तित्व-अवक्तव्य धर्म भी है और इन्हें विषय बनानेवाले नास्तित्वअवक्तव्यनय और अस्तित्व-नास्तित्व-अवक्तव्यनय भी हैं। आत्मा के अस्तित्वधर्म, नास्तित्वधर्म, अस्तित्व-नास्तित्वधर्म, अवक्तव्यधर्म, अस्तित्व-अवक्तव्यधर्म, नास्तित्व-अवक्तव्यधर्म और अस्तित्व-नास्तित्व-अवक्तव्यधर्म - इन सात धर्मों को विषय बनानेवाले क्रमशः अस्तित्वनय, नास्तित्वनय, अस्तित्व-नास्तित्वनय, अवक्तव्यनय, अस्तित्व-अवक्तव्यनय, नास्तित्व-अवक्तव्यनय और अस्तित्व-नास्तित्व-अवक्तव्यनय - ये सात नय हैं। उक्त सात नयों को समझाने के लिये आचार्यदेव ने बाण का उदाहरण दिया है। एक आदमी धनुष और बाण को लिये हुए है तथा वह आदमी धनुष के ऊपर बाण को खींचे हुए की अवस्था में है। इसमें आचार्यदेव ने द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव को समझाया है। वे कहते हैं कि लोहे का बाण तो द्रव्य है; वह बाण धनुष पर चढ़ा हुआ है - यह उसका क्षेत्र है; वह बाण संधानदशा में है - यह उसका काल है और वह बाण लक्ष्योन्मुख है - यह उसका भाव है। इस उदाहरण में बात मात्र बाण की नहीं है, अपितु लोहे के बाण की बात है, धनुष के मध्य में स्थित बाण की बात है, संधानदशावाले बाण की बात है एवं लक्ष्योन्मुख बाण की बात है। ___इसीप्रकार आत्मा भी स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से हैं एवं परद्रव्य क्षेत्र-काल-भाव से नहीं है। आत्मा में जो अस्तित्व नामक धर्म है, उसका काम आत्मा के अस्तित्व को कायम रखना है। आत्मा के नास्तित्वधर्म के कारण पर का आत्मा में प्रवेश संभव नहीं है। इसी धर्म के कारण आत्मा के चारों ओर एक वज्र की सी दीवार बनी हुई है, जिसके कारण परद्रव्य आत्मा में ___ 196
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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