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________________ ४० दूसरा प्रवचन प्रवचनसार का सार को ही नहीं जानते हैं। इसप्रकार सर्वज्ञता का स्वरूप यदि हमारे समझ में नहीं आयेगा तो देव-शास्त्र-गुरु - इन तीनों पर प्रश्नचिन्ह लग जाएगा। आचार्यदेव सर्वज्ञता को बताकर एक तरह से देव का ही स्वरूप बता रहे हैं। आगे ८०वीं गाथा में आचार्य कहेंगे कि - जो जाणदि अरहंतं दव्वत्तगुणत्तपज्जयत्तेहिं । सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्सलयं ।।८।। (हरिगीत ) द्रव्यगुणाय से जो जानते अरहंत को। वे जानते निज आतमा द्रगमोह उनका नाश हो ।।८०।। जो अरहंत को द्रव्यरूप से, गुणरूप से और पर्यायरूप से जानता है, वह आत्मा को जानता है और उसका मोह निश्चय से नष्ट होता है। सर्वज्ञस्वभावी अरहंत को सर्वज्ञत्वशक्ति और सर्वज्ञता अर्थात् केवलज्ञान सहित जानने से अपना आत्मा भी समझ में आ जाता है; क्योंकि उनमें और हम में कोई अन्तर नहीं है। सभी अरहंतों ने स्वयं अनुभूत इसी मार्ग को जगत के समक्ष प्रस्तुत किया है। सव्वे वि य अरहता तेण विधाणेण खविदकम्मंसा । किच्चा तधोवदेसं, णिव्वादा ते णमो तेसिं ।।८२।। (हरिगीत ) सर्व ही अरहंत ने विधि नष्ट कीने जिस विधि । सबको बताई वही विधि हो नमन उनको सब विधि ।।८२।। सभी अरहंत उसी पद्धति से कर्मांशों का क्षयकर तथा उसीप्रकार उपदेश देकर मोक्ष गये हैं - उन्हें नमस्कार हो। ८६वीं गाथा में आचार्यदेव दूसरा रास्ता सर्वज्ञकथित 'शास्त्रों का सम्यक् प्रकार से अध्ययन करना चाहिए' यह बताते हैं। इस सभी विवरण से यह स्पष्ट है कि सर्वज्ञता का स्वरूप जानना अत्यंत आवश्यक है। परिणमदो खलु णाणं पच्चक्खा सव्वदव्वपज्जाया। सोणेव ते विजाणदि, उग्गहपुव्वाहि किरियाहिं ।।२१।। (हरिगीत) केवली भगवान के सब द्रव्य गुण-पर्याययुत । प्रत्यक्ष हैं अवग्रहादिपूर्वक वे उन्हें नहीं जानते ।।२१।। वास्तव में ज्ञानरूप से परिणत केवली भगवान के सभी द्रव्य-पर्यायें प्रत्यक्ष हैं और वे उन्हें अवग्रहादि क्रियाओं पूर्वक नहीं जानते। केवली भगवान अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा पूर्वक नहीं जानते; क्योंकि यह प्रक्रिया तो मतिज्ञान में सम्पन्न होती है। केवली भगवान के जानने में क्रम नहीं है, वे सभी को एकसाथ जानते हैं। छहढाला में कहा है - सकल द्रव्य के गुण अनंत परजाय अनंता । जानै एकै काल प्रगट केवली भगवंता ।। केवली भगवान इन्द्रियों के माध्यम से नहीं जानते हैं; वे एकसाथ एक समय में सब द्रव्यों की सब पर्यायों को प्रत्यक्ष जानते हैं। अगली दो गाथाओं में इसी अतीन्द्रियज्ञान अर्थात् केवलज्ञान की महिमा गाई गई है। फिर अंत में २३वीं गाथा में इसका मतार्थ प्रस्तुत किया है; जो इसप्रकार है - आदाणाणपमाणंणाणंणेयप्पमाणमुद्दिटुं। णेयं लोयालोयं तम्हा णाणं तु सव्वगयं ।।२३।। (हरिगीत) यह आत्म ज्ञानप्रमाण है अर ज्ञान ज्ञेयप्रमाण है। हैं ज्ञेय लोकालोक इस विधि सर्वगत यह ज्ञान है ।।२३।। आत्मा ज्ञानप्रमाण है और ज्ञान ज्ञेयप्रमाण है तथा ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है। कुछ मतवाले ऐसे हैं जो ऐसा कहते हैं कि आत्मा सर्वगत है अर्थात् 17
SR No.008370
Book TitlePravachansara ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages203
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size604 KB
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