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प्रवचनसार कासार
दूसरा प्रवचन
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४२ आत्मा सम्पूर्ण लोकालोक में व्याप्त है। एक ही आत्मा है और वही सर्वत्र व्याप्त है; जो हमारे शरीर में है, वह उसका ही अंश है; परन्तु जैनदर्शन कहता है कि ऐसा कोई सर्वगत आत्मा नहीं है।
जैनदर्शन में भी आत्मा को सर्वगत कहा है; परन्तु जैनदर्शन में समागत सर्वगत शब्द का अर्थ भिन्न है।
जैनदर्शन यह मानता है कि आत्मा शरीर प्रमाण है। कुछ लोग ऐसा मानते है कि यह आत्मा शरीर में भी शरीर के मध्य अणु कणिका मात्र है; जो हृदयस्थान में विराजमान है। वह पूरे शरीर में नहीं है।
इसप्रकार भिन्न-भिन्न मत हैं।
आत्मा में असंख्यात प्रदेश हैं एवं प्रत्येक प्रदेश में ज्ञान है। जहाँजहाँ आत्मा के प्रदेश हैं; वहाँ-वहाँ ज्ञान है। जहाँ-जहाँ आत्मा के प्रदेश नहीं हैं; वहाँ-वहाँ ज्ञान भी नहीं है।
ज्ञान लोकालोक को जानता है। ज्ञान ज्ञेयप्रमाण है अर्थात् जितने ज्ञेय हैं; उन सभी को ज्ञान जानता है; इस अपेक्षा से ज्ञान ज्ञेयप्रमाण है। 'गम्' धातु के दो अर्थ होते हैं - जाना और जानना । यहाँ आचार्य कहते हैं कि इस आत्मा ने अलोकाकाश को जाना तो मानो वह अलोकाकाश में पहुँच ही गया; जबकि लोकाकाश के बाहर कोई भी द्रव्य जाता नहीं है; फिर भी उसे जाना या पहुँचना कहते हैं।
आत्मा के लिए लोकालोक ज्ञेय है, इसका अर्थ है आत्मा लोकालोक तक चला गया। इसप्रकार जानने की अपेक्षा से ही आत्मा को सर्वगत कहा गया है।
जिस-जिस को आत्मा जानता है; वह वहाँ तक पहुँचता है। सूर्य का प्रकाश जहाँ-जहाँ पहुँचा; वहाँ-वहाँ सूरज पहुँच गया - ऐसा हम बोलते हैं। जहाँ किरण पहुँचती है, वहाँ सूरज पहुँचा - ऐसा भी हम बोलते ही हैं और जहाँ किरण भी नहीं पहुँची ऐसे तलघर में बैठे-बैठे हम बता सकते हैं कि अभी दिन है या रात । इसका अर्थ यह है कि सूर्य
ने अपनी सत्ता का ज्ञान वहाँ भी करा दिया, सूर्य वहाँ भी पहुंच गया। इसप्रकार जहाँ उसकी किरण पहुँची, वहाँ तो वह पहुँचा ही; पर जहाँ उसकी किरण नहीं पहुँची, वहाँ भी वह पहुँच गया।
ऐसे ही भगवान आत्मा के प्रदेश जहाँ तक जाते हैं; वहाँ तक तो वह आत्मा जाता ही है; किन्तु जहाँ तक आत्मा ने जाना; एक अपेक्षा से आत्मा वहाँ तक पहुँच गया - ऐसा भी कहा जाता है। इसी अपेक्षा से आचार्यदेव ने आत्मा को सर्वगत कहा है।
आत्मा ज्ञानप्रमाण है अर्थात् ज्ञान के बराबर है।
यदि कोई ऐसा कहे कि ज्ञान बड़ा है और आत्मा छोटा; क्योंकि ज्ञान तो लोकालोक में चला गया, पर आत्मा तो शरीर के प्रदेशों में ही रहता है। वह लोकाकाश के बाहर तो जा नहीं सकता है।
आचार्य कहते हैं कि ज्ञान गुण है एवं आत्मा द्रव्य है। द्रव्य के बिना गुण नहीं रह सकता है तो आश्रय के बिना ज्ञान वहाँ (अलोकाकाश में) कैसे रहेगा?
यदि कोई ऐसा कहे कि हम ज्ञान को छोटा मानेंगे और आत्मा को बड़ा; क्योंकि ज्ञान जैसे अनंत गुण आत्मा में है। ज्ञान आत्मा का अनंतवाँ भाग है; क्योंकि आत्मा अनंत गुणों का पिण्ड है।
ज्ञान को छोटा मानने पर ज्ञान की मर्यादा के बाहर जो आत्मा होगा, वह आत्मा अज्ञानरूप हो जाएगा; परन्तु आत्मा तो ज्ञानस्वरूप ही है।
ऐसे-ऐसे अनेक तर्क देकर आचार्यदेव ने यह सिद्ध किया है कि आत्मा ज्ञानप्रमाण है। जितना आत्मा, उतना ज्ञान एवं जितना ज्ञान, उतना आत्मा।
आचार्य कहते हैं कि ज्ञान का ऐसा स्वभाव है कि वह ज्ञेयों में गये बिना ही ज्ञेयों को जान लेता है और ज्ञेयों का ऐसा स्वभाव है कि वे अपनी जगह रहे और ज्ञान में जाने जावे।
यदि हमें व आपको मिलना है तो या तो आपको हमारे पास आना
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