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प्रवचनसारका सार
कहते हैं, आपको शर्म नहीं आती?
अरे भाई ! यह कोई अन्य नहीं कह रहा है, आचार्य स्वयं ही कह रहे हैं कि हम ज्ञान के स्वरूप का प्रपञ्च करेंगे। अरे भाई ! यहाँ प्रयुक्त प्रपंच शब्द का अर्थ विस्तार होता है।
८२वीं गाथा की टीका के अन्त में आचार्य लिखते हैं - 'अलमिति प्रपञ्चेन ।' अब इस प्रपञ्च से विराम लेते हैं अर्थात् बहुत विस्तार हो गया है, अब इसे समेटते हैं।
प्रवचनसार के इस अधिकार का वर्ण्यविषय सर्वज्ञस्वभाव का वर्णन है। यहाँ आचार्यदेव सर्वज्ञत्वशक्ति का विस्तार से वर्णन करेंगे; क्योंकि इस सर्वज्ञता का स्वरूप स्पष्ट हुए बिना जैनदर्शन ही आरंभ नहीं होता; क्योंकि हमारा जो आगम है, वह सर्वज्ञ की वाणी के आधार पर ही निर्मित हुआ है। यदि उनकी वाणी में, सर्वज्ञता में शंका करें तो हम आगम पर शंका करते हैं। उन्होंने जिसका प्रतिपादन किया, वही तो शास्त्र हैं । यदि हम उन पर ही अविश्वास करेंगे तो जैनदर्शन ही प्रारंभ नहीं होगा, जैनदर्शन को हम कभी समझ नहीं सकेंगे।
आज हमें जैनदर्शन के नाम पर सर्वज्ञ भगवान की ही वाणी उपलब्ध है। वह सर्वज्ञ की ही वाणी है, जिसके आधार पर देशनालब्धि प्राप्त होती है, आत्मा का अनुभव होता है। संपूर्ण जगत में आज जो जैनदर्शन विद्यमान है, वह सर्वज्ञ की वाणी की ही उपलब्धि है।
सर्वज्ञता के अस्वीकार में न केवल शास्त्रों पर ही, अपितु देव व गुरु पर भी प्रश्नचिह्न लग जायेगा; क्योंकि देव का स्वरूप इसी जिनवाणी में बताया है कि देव वीतरागी, सर्वज्ञ एवं हितोपदेशी होते हैं। यह हमने अनुभव से नहीं जाना है, अपितु शास्त्र द्वारा ही जाना है। ____ गुरु पीछी-कमण्डलु धारण करते हैं, यह सब शास्त्रों में ही लिखा है। शास्त्रों के आधार से ही मुनिराजों का आचरण सुनिश्चित होता है। शास्त्रों में देखकर ही हम कहते हैं कि यह ठीक आचरण है एवं यह ठीक
दूसरा प्रवचन नहीं है। शास्त्रों के ही आधार से हम ऐसा निर्णय कर पाते हैं।
जितने भी अजैन हैं, वे सभी जैनमुनियों के बाह्य आचरण एवं नग्नावस्था को देखकर ही अभिभूत हो जाते हैं।
कोई अजैन विद्वान आता है तो वह हमारे मुनिराजों को देखकर गद्गद् हो जाता है; क्योंकि उनके यहाँ जिसतरह के परिग्रही गुरु हैं एवं जिसतरह का उनका आचरण है; उनके सन्मुख हमारे मुनिराज बहुत अच्छे लगते हैं। ____ एक बार राम बगुले की ध्यानमग्नमुद्रा देखकर बहुत प्रभावित हुए एवं बगुले की प्रशंसा करने लगे; तब तालाब की मछलियाँ रामचन्द्रजी से कहती हैं -
वकः किम् स्तूयते राम: येनाहम् निष्कुलीकृता। हे राम! इस बगुले की क्या स्तुति करते हो, इसने तो हमारे कुल के कुल साफ कर दिए हैं। इसने ही तो हमारे माता-पिता तथा बच्चों को खा लिया है और हम अकेले रह गए। पड़ोसी ही पड़ोसी की प्रवृत्ति को जान सकता है।
जब कोई मछली बगुले के पास चली जाती है तो वह तुरन्त डुबकी लगाकर मछली को खा जाता है। फिर वैसा का वैसा ही ध्यान की मुद्रा में खड़ा हो जाता है। हम तो इसकी मात्र ध्यानमुद्रा ही देख पाते हैं; इसकी जो ये कुप्रवृत्ति है, उसे नहीं देख पाते हैं। हम उसे मात्र दस-बीस मिनिट ही देख पाते हैं; शेष समय यह कैसा नंगा-नाच करता है; यह हमें पता नहीं है।
उन अभिभूत अजैन विद्वानों ने जिनवाणी नहीं देखी है, जिसमें मुनि का स्वरूप प्रतिपादित है। वे स्वयं के ज्ञान के आधार पर ही उनके आचरण को तौल रहे हैं। उन्हें वास्तविक कसौटी का ही ज्ञान नहीं है। वे श्रावकों से उनकी तुलना करते हैं। वे कहते हैं कि वे हमसे तो अच्छे हैं, वे तुमसे तो अच्छे हैं। इसप्रकार वे जिनवाणी में प्रतिपादित कसौटी
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