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________________ गाथा-२८-२९ १४६ प्रवचनसार अनुशीलन इसप्रकार यद्यपि यह आत्मा ज्ञेय पदार्थों के पास जाता नहीं है और ज्ञेय पदार्थ भी आत्मा के पास आते नहीं हैं; तथापि यह आत्मा उन्हें जान लेता है और वे ज्ञेय पदार्थ आत्मा के जानने में आ जाते हैं। इसप्रकार वे आत्मा में प्रविष्ठ भी हैं और अप्रविष्ठ भी हैं। व्यवहार से प्रविष्ठ हैं और निश्चय से अप्रविष्ठ हैं। इस बात को भावार्थ में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - “यद्यपि आँख अपने प्रदेशों से रूपी पदार्थों को स्पर्श नहीं करती, इसलिए वह निश्चय से ज्ञेयों में अप्रविष्ठ है; तथापि वह रूपी पदार्थों को जानती-देखती है, इसलिए व्यवहार से यह कहा जाता है कि मेरी आँख बहुत से पदार्थों में जा पहुँचती है। इसीप्रकार यद्यपि केवलज्ञानप्राप्त आत्मा अपने प्रदेशों के द्वारा ज्ञेय पदार्थों को स्पर्श नहीं करता, इसलिए वह निश्चय से तो ज्ञेयों में अप्रविष्ट है; तथापि ज्ञायक-दर्शक शक्ति की किसी परम अद्भुत विचित्रता के कारण वह समस्त ज्ञेयाकारों को जानता-देखता है; इसलिए व्यवहार से यह कहा जाता है कि आत्मा सर्वद्रव्य-पर्यायों में प्रविष्ट हो जाता है। इसप्रकार व्यवहार से ज्ञेय पदार्थों में आत्मा का प्रवेश सिद्ध होता है।" यद्यपि आचार्य जयसेन भी तात्पर्यवृत्ति में इन गाथाओं के भाव को इसीप्रकार स्पष्ट करते हैं; तथापि वे केवलज्ञान और उनमें झलकनेवाले पदार्थों का उल्लेख करते हुए लिखते हैं कि तीनलोक में स्थित तीनकाल संबंधी समस्त पर्यायों से परिणमित सभी पदार्थ, ज्ञान के साथ परस्पर प्रदेशों का संबंध नहीं होने पर भी अपने आकारों को समर्पित करने में समर्थ हैं और केवलज्ञान भी उनके आकारों को ग्रहण करने में पूर्णतः समर्थ है। इन गाथाओं के भाव का भावानुवाद कविवर वृन्दावनदासजी इसप्रकार करते हैं (षट्पद) ज्ञानी अपने ज्ञानभाव ही माहिं विराजै । ज्ञेयरूप सब वस्तु आपने में ही छाजै ।। मिलिकर बरतें नाहिं परस्पर ज्ञेयरु ज्ञानी । ऐसी ही मर्याद वस्तु की बनी प्रमानी ।। जिमि रूपी दरबनि को प्रगट, देखत नयन प्रमान कर । तिमि तहां जथारथ जानि के, वृन्दावन परतीति धर ।।१३२।। ज्ञानी अपने ज्ञानभाव में ही विराजमान है और ज्ञेयरूप समस्त वस्तुएँ भी स्वयं में ही शोभायमान हैं। ज्ञेय और ज्ञानी - दोनों परस्पर मिलकर नहीं रहते । वस्तुस्वरूप की ऐसी ही मर्यादा है। जिसप्रकार आँखे रूपी पदार्थों को जानती हैं; उसीप्रकार आत्मा भी प्रमाण और नयों से पदार्थों को यथार्थ जानकर प्रतीति करते हैं। (मनहरण) ज्ञानी ना प्रदेश तें प्रवेश करै ज्ञेयमाहिं, तथा व्यवहार से प्रवेश हू सो करै है। अच्छातीत ज्ञानतें समस्त वस्तु देखे जानें, पाथर की रेख ज्यों न संग परिहरै है ।। जैसे नैन रूपक पदारथ विलौकै वृन्द, तैसे शुद्ध ज्ञान सों अमल छटा भरै है। मानों सर्व ज्ञेय को उखारि के निगलि जात, ___ शक्त व्यक्त तास को विचित्र एसोधरै है।।१३३।। यद्यपि निश्चयनय से आत्मा अपने प्रदेशों से ज्ञेय में प्रवेश नहीं करता; तथापि व्यवहार से पर में प्रवेश करता है - ऐसा कहा जाता है। पत्थर की रेखा के समान समस्त परिग्रह के त्यागी आत्मा अक्षातीत केवलज्ञान से समस्त वस्तुओं को देखते-जानते हैं।
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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