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________________ गाथा-२८-२९ १४५ प्रवचनसार गाथा-२८-२९ विगत २७ वीं गाथा में यह समझाया गया है कि ज्ञान और आत्मा कथंचित् अनन्य हैं और कथंचित् अन्य-अन्य हैं और अब इन २८ वीं व २९ वीं गाथा में यह समझाया जा रहा है कि यद्यपि ज्ञान ज्ञेयों में प्रवेश नहीं करता और ज्ञेय भी ज्ञान में नहीं आते; तथापि ज्ञान ज्ञेयों को जानता है; इस अपेक्षा वह ज्ञेयों में चला गया या ज्ञेय ज्ञान में आ गये - ऐसा भी कहा जाता है। गाथायें मूलत: इसप्रकार हैं - णाणी णाणसहावो अट्ठा णेयप्पगा हि णाणिस्स । रूवाणि व चक्खूणं णेवण्णोण्णेसु वटुंति ।।२८।। ण पविट्टो णाविट्ठो णाणी णेयेसु रूवमिव चक्खू । जाणदि पस्सदि णियदं अक्खातीदो जगमसेसं ।।२९।। (हरिगीत ) रूप को ज्यों चक्षु जाने परस्पर अप्रविष्ठ रह । त्यों आत्म ज्ञानस्वभाव अन्य पदार्थ उसके ज्ञेय हैं ।।२८।। प्रविष्ठ रह अप्रविष्ठ रह ज्यों चक्षु जाने रूप को। त्यों अतीन्द्रिय आत्मा भी जानता सम्पूर्ण जग ।।२९।। जिसप्रकार रूपी पदार्थ नेत्रों के ज्ञेय हैं; उसीप्रकार ज्ञानस्वभावी आत्मा के सभी पदार्थ ज्ञेय हैं; फिर भी वे ज्ञान और ज्ञेय एक-दूसरे में प्रवेश नहीं करते। जिसप्रकार चक्षु रूप में अप्रविष्ट रहकर और अप्रविष्ट न रहकर जानती-देखती है; उसीप्रकार आत्मा इन्द्रियातीत होता हुआ सम्पूर्ण जगत को उसमें अप्रविष्टरहकर और अप्रविष्ट नरहकर निरन्तर जानता-देखता है। इन गाथाओं के भाव को तत्त्वप्रदीपिका में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है “यद्यपि आत्मा और पदार्थ स्वलक्षणभूत पृथक्त्व के कारण एकदूसरे में प्रवृत्त नहीं होते; तथापि उनके नेत्र और रूपी पदार्थ की भांति ज्ञान-ज्ञेय स्वभावसंबंध से होनेवाली एक-दूसरे में प्रवृत्ति पाई जाती है। जिसप्रकार नेत्र और उनके विषयभूत रूपी पदार्थ परस्पर प्रवेश किये बिना ही ज्ञेयाकारों को ग्रहण और समर्पण करने से स्वभाववाले हैं; उसीप्रकार आत्मा और पदार्थ एक-दूसरे में प्रविष्ठ हुए बिना ही समस्त ज्ञेयाकारों के ग्रहण करने और समर्पण करने के स्वभाववाले हैं। जिसप्रकार चक्षुरूपी द्रव्यों को स्वप्रदेशों के द्वारा अस्पर्श करती हुई अप्रविष्ठ रहकर तथा ज्ञेय आकारों को आत्मसात करते हुए अप्रविष्ठ न रहकर जानती-देखती है; उसीप्रकार आत्मा भी इन्द्रियातीतता के कारण प्राप्यकारिता की विचार-गोचरता से दूर होता हुआ ज्ञेयभूत समस्त वस्तुओं को स्वप्रदेशों से अस्पर्श करता हुआ अप्रविष्ठ रहकर तथा शक्तिवैचित्र्य के कारण वस्तु में वर्तते समस्त ज्ञेयाकारों को मानो मूल से ही उखाड़कर ग्रास कर लेने से अप्रविष्ठ न रहकर जानता-देखता है। इसप्रकार इस विचित्रशक्तिवाले आत्मा के पदार्थों में अप्रवेश की भांति प्रवेश भी सिद्ध होता है।” वस्तुत: बात यह है कि सभी द्रव्य परस्पर भिन्न हैं, प्रत्येक के जुदेजुदे लक्षण हैं; इसकारण वे एक-दूसरे में प्रवृत्त नहीं होते; तथापि उनमें से आत्मा और पर-पदार्थों में परस्पर ज्ञायक-ज्ञेय संबंध होने से नेत्र और रूपी पदार्थों के समान परस्पर में प्रवृत्ति उपचार से कही जाती है। ___ तात्पर्य यह है कि जिसप्रकार आँखें उनके पास गये बिना ही रूपी पदार्थों को जानती-देखती हैं; उसीप्रकार यह आत्मा भी ज्ञेयपदार्थों के पास गये बिना ही उन्हें जानता-देखता है।
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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