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गाथा-१६
प्रवचनसार अनुशीलन करने के कारण केवलज्ञान कर्म है अथवा केवलज्ञान से स्वयं अभिन्न होने से आत्मा स्वयं ही कर्म है; अपने अनन्त शक्तिवाले परिणमनस्वभावरूप उत्कृष्ट साधन से केवलज्ञान को प्रगट करता है, इसलिए आत्मा स्वयं ही करण है; अपने को ही केवलज्ञान देता है, इसलिए आत्मा स्वयं ही सम्प्रदान है; अपने में से मति-श्रुतादि अपूर्ण ज्ञान दूर करके केवलज्ञान प्रगट करता है, इसलिए और स्वयं सहज ज्ञानस्वभाव के द्वारा ध्रुव रहता है, इसलिए स्वयं ही अपादान है; अपने में ही अर्थात् अपने ही आधार से केवलज्ञान प्रगट करता है, इसलिए स्वयं ही अधिकरण है।
इसप्रकार स्वयं छह कारकरूप होता है, इसलिए वह 'स्वयंभू' कहलाता है। अथवा अनादिकाल से अति दृढ़ बंधे हुए (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतरायरूप) द्रव्य तथा भाव घातिकर्मों को नष्ट करके स्वयमेव आविर्भूत हुआ अर्थात् किसी की सहायता बिना अपने आप ही स्वयं प्रगट हुआ, इसलिए 'स्वयंभू' कहलाता है।"
इस गाथा और टीका का भाव कविवर वृन्दावनदासजी तेरह छन्दों में समझाते हैं; जिसमें वे स्वयंभूका स्वरूप समझाते हुए निश्चय और व्यवहार षट्कारकों की भी चर्चा करते हैं। निश्चय और व्यवहार षट्कारकों की बात हेमराज के भावार्थ में स्पष्ट हो ही गई है; अत: उन्हीं के आधार पर बनाये गये वृन्दावनदासजी के छन्दों के देने का कोई औचित्य नहीं लगता। अतः षट्कारकों के स्वरूप संबंधी छन्दों के अतिरिक्त छन्द यहाँ प्रस्तुत हैं। जिनको सभी छन्दों का आनन्द लेना हो वे मूल ग्रन्थ का स्वाध्याय करें।
(मनहरण) ताही भांति विमल भये जे आपचिदानन्द।
तास को स्वयंभू नाम ऐसो दरसायो है।। प्रापत भये अनन्त ज्ञानादि स्वभावगुन ।
आपहीते आपमांहि सुधा बरसायो है ।। सोई सरवज्ञ तिहूँकाल के समस्त वस्त ।
हस्तरेख से प्रशस्त लखै सरसायो है ।। ताही के पदारविंद देवइन्द नागइन्द।
मानुषेद वृन्द बंदि पूज हरषायो है ।।५२।। जो आत्मा शुद्धोपयोग के द्वारा निर्मल हुए हैं, जिन्हें अनंत ज्ञानादिस्वभावगुण प्राप्त हुए हैं, जिनके अन्तर में आनन्दामृत बरसा है, जिनकी सर्वज्ञता में तीनकाल की समस्त वस्तुएँ हाथ की रेखा के समान दिखाई देती हैं और जिनके चरण कमलों की वंदना करके देवेन्द्र, नागेन्द्र और चक्रवर्ती हर्षित होते हैं; उन सर्वज्ञ-वीतरागी भगवान को स्वयंभू कहते हैं।
(चौबोला) जब संसार दशा तज चेतन शुद्धुपयोग स्वभाव गहै। तब आपहि षट्कारकमय है केवलपद परकाश लहै ।। तहाँ स्वयंभू आप कहावत सकल शक्ति निज व्यक्त अहै। चिद्विलास आनन्दकन्द पद वंदि वृन्द दुखद्वंद दहै ।।६४।।
जब यह भगवान आत्मा सांसारिक दुर्दशा को छोड़कर शुद्धोपयोग के द्वारा अपने स्वभाव का ग्रहण करता है; तब स्वयं षट्कारकरूप परिणमित होकर केवलज्ञान को प्राप्त करता है और तभी स्वयंभू कहा जाता है; क्योंकि स्वयं से ही स्वयं की सभी शक्तियाँ व्यक्त हो जाती हैं। इसप्रकार के आनंद के कंद चैतन्य आत्मा के विलास की वृन्दावन वन्दना करके अपने दुःख और आन्तरिक द्वन्दों को जलाता है। उक्त गाथा का भाव स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“शुद्ध उपयोग से होनेवाली शुद्धात्मस्वभाव की प्राप्ति अन्य कारकों से निरपेक्ष ही है; अर्थात् उसे निमित्त कारकों की अपेक्षा नहीं होती । इसीतरह अशुद्धता में भी निमित्त कारकों की अपेक्षा नहीं है; अशुद्धता के कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण - ये छहों कारक निरपेक्ष हैं - ऐसा पंचास्तिकाय में कहा है। विकार के छहों कारक निरपेक्ष हैं। यहाँसुद्धलिसके कारकोंकीबात है।'