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________________ ९२ प्रवचनसार अनुशीलन मूल बात यह है कि यह आत्मा स्वभाव से तो भगवान है ही, पर्याय में भी भगवान स्वयं ही बनता है, स्वाधीनपने ही बनता है, पर के सहयोग के बिना ही बनता है; अत: सर्वज्ञ भगवान स्वयंभू हैं। अभिन्न षट्कारक ही निश्चय षट्कारक हैं, भिन्न षट्कारक तो व्यवहार से षट्कारक कहे जाते हैं। सामान्य पाठकों की दृष्टि से निश्चय और व्यवहार षट्कारकों का सामान्य स्वरूप जान लेना उचित प्रतीत होता है। इसी गाथा के भावार्थ में पाण्डे हेमराजजी निश्चय-व्यवहार षट्कारकों का स्वरूप इसप्रकार समझाते हैं - “कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण नामक छह कारक हैं। जो स्वतंत्रतया-स्वाधीनता से करता है, वह कर्ता है; कर्ता जिसे प्राप्त करता है, वह कर्म है; साधकतम अर्थात् उत्कृष्ट साधन को करण कहते हैं; कर्म जिसे दिया जाता है अथवा जिसके लिए किया जाता है, वह सम्प्रदान है; जिसमें से कर्म किया जाता है, वह ध्रुववस्तु अपादान है और जिसमें अर्थात् जिसके आधार से कर्म किया जाता है, वह अधिकरण है। यह छह कारक व्यवहार और निश्चय के भेद से दो प्रकार गाथा-१६ करण है, अन्य सम्प्रदान; अन्य अपादान और अन्य अधिकरण है। परमार्थत: कोई द्रव्य किसी का कर्ता-हर्ता नहीं हो सकता, इसलिए यह छहों व्यवहारकारक असत्य हैं। वे मात्र उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से कहे जाते हैं। निश्चय से किसी द्रव्य का अन्य द्रव्य के साथ कारणता का सम्बन्ध है ही नहीं। निश्चय कारकों का दृष्टान्त इसप्रकार है - मिट्टी स्वतन्त्रतया घटरूप कार्य को प्राप्त होती है। इसलिए मिट्टी कर्ता है और घड़ा कर्म है। अथवा, घड़ा मिट्टी से अभिन्न है; इसलिए मिट्टी स्वयं ही कर्म है; अपने परिणमन स्वभाव से मिट्टी ने घड़ा बनाया; इसलिए मिट्टी स्वयं ही करण है; मिट्टी ने घड़ारूप कर्म अपने को ही दिया इसलिए मिट्टी स्वयं सम्प्रदान है; मिट्टी अपने में से पिंडरूप अवस्था नष्ट करके घटरूप कर्म किया और स्वयं ध्रुव बनी रही, इसलिए वह स्वयं ही अपादान है; मिट्टी ने अपने ही आधार से घड़ा बनाया, इसलिए स्वयं ही अधिकरण है। इसप्रकार निश्चय से छहों कारक एक ही द्रव्य में हैं। परमार्थतः एक द्रव्य दूसरे की सहायता नहीं कर सकता और द्रव्य स्वयं ही, अपने को, अपने से, अपने लिए, अपने में से, अपने में करता है; इसलिए निश्चय छह कारक ही परमसत्य हैं। __उपर्युक्त प्रकार से द्रव्यं स्वयं ही अपनी अनन्तशक्तिरूप सम्पदा से परिपूर्ण है। इसलिए स्वयं ही छह कारकरूप होकर अपना कार्य करने के लिए समर्थ है, उसे बाह्यसामग्री कोई सहायता नहीं कर सकती। इसलिए केवलज्ञान प्राप्ति के इच्छुक आत्मा को बाह्यसामग्री की अपेक्षा रखकर परतंत्र होना निरर्थक है। शुद्धोपयोग में लीन आत्मा स्वयं ही छह कारकरूप होकर केवलज्ञान प्राप्त करता है । वह आत्मा स्वयं अनंतशक्तिवान ज्ञायकस्वभाव से स्वतंत्र है, इसलिए स्वयं ही कर्ता है; स्वयं अनन्तशक्तिवाले केवलज्ञान को प्राप्त के हैं। जहाँ पर के निमित्त से कार्य की सिद्धि कहलाती है, वहाँ व्यवहार कारक है और जहाँ अपने ही उपादान कारण से कार्य की सिद्धि कही जाती है, वहाँ निश्चय कारक है। व्यवहार कारकों का दृष्टान्त इसप्रकार है - कुम्हार कर्ता है, घड़ा कर्म है; दंड, चक्र, चीवर इत्यादि करण हैं; कुम्हार जल भरनेवाले के लिए घड़ा बनाता है, इसलिए जल भरनेवाला सम्प्रदान है; टोकरी में से मिट्टी लेकर घड़ा बनाता है, इसलिए टोकरी अपादान है और पृथ्वी के आधार पर घड़ा बनाता है, इसलिए पृथ्वी अधिकरण है। यहाँ सभी कारक भिन्न-भिन्न हैं। अन्य कर्ता है; अन्य कर्म है; अन्य
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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