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गाथा-१३
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प्रवचनसार अनुशीलन शुद्धोपयोग का फल सिद्धदशा की प्राप्ति है, शुभोपयोग का फल स्वर्गादिक की प्राप्ति और अशुभोपयोग का फल नरकादि गति की प्राप्ति होना है।
इसप्रकार इस ग्रन्थाधिराज की आरंभ की १२ गाथाओं में यही कहा गया कि अशुभोपयोग सर्वथा हेय है, शुभोपयोग भी बंध का कारण होने से हेय ही है; किन्तु शुद्धोपयोग मुक्ति का कारण होने से परम उपादेय है। यही कारण है कि १३ वीं गाथा से शुद्धोपयोगाधिकार आरंभ करते हैं।
तत्त्वप्रदीपिका टीका में इस अधिकार के आरंभ में ही आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं कि इस समस्त शुभोपयोगरूप और अशुभोपयोगरूप वृत्ति को निरस्त कर, तिरस्कृत कर शुद्धोपयोगवृत्ति को आत्मसात करते हुए शुद्धोपयोगाधिकार आरंभ करते हैं।
उसमें सबसे पहले इस १३ वीं गाथा में शुद्धोपयोग को प्रोत्साहन देने के लिए उससे प्राप्त होनेवाले वास्तविक सुख का स्वरूप बताते हैं। गाथा मूलत: इसप्रकार है - अइसयमादसमुत्थं विसयातीदं अणोवममणंतं । अव्वुच्छिण्णं च सुहं सुद्धवओगप्पसिद्धाणं ।।१३।।
(हरिगीत) शुद्धोपयोगी जीव के है अनूपम आत्मोत्थसुख ।
है नंत अतिशयवंत विषयातीत अर अविछिन्न है ।।१३।। आत्मा के आश्रय से आत्मा में ही उत्पन्न होनेवाले शुद्धोपयोग से सम्पन्न आत्माओं का सुख अतिशय, अनुपम, अनंत, अविच्छन्न और विषयातीत है।
इस गाथा में समागत सुख के सभी विशेषणों को स्पष्ट करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका में लिखते हैं -
“शुद्धोपयोग से प्राप्त होनेवाला सुख अनादि संसार से कभी भी
अनुभव में नहीं आने से अपूर्व एवं परम अद्भुत आल्हादरूप होने से अतिशय है; अपने आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होने से आत्मोत्पन्न; पराश्रय से निरपेक्ष होने से अर्थात् स्पर्शादि विषयों से निरपेक्ष होने से विषयातीत; अत्यन्त विलक्षण होने से अर्थात् लौकिक सुखों से भिन्न होने से, भिन्न जाति का होने से अनुपम; अनन्त आगामी काल में कभी भी नाश को प्राप्त न होने से अनंत और बिना अन्तर के अर्थात् निरन्तर प्रवर्तमान होने से अविच्छिन्न होता है; इसलिए यह सुख सर्वथा प्रार्थनीय है, परम उपादेय है।"
इस गाथा का अर्थ करते हुए आचार्य जयसेन भी सभी विशेषणों की व्याख्या इसीप्रकार प्रस्तुत करते हैं।
एक बात विशेष ध्यान देने योग्य यह है कि शुद्धोपयोग तो अरहंत अवस्था के पहले भी होता है; तथापि यहाँ शुद्धोपयोगियों से तात्पर्य शुद्धोपयोग की पूर्णता को प्राप्त अरहंत और सिद्धों से ही है।
यद्यपि गाथा और तत्त्वप्रदीपिका टीका में ऐसा कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है; तथापि आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में इस बात का स्पष्ट उल्लेख करते हैं तथा यहाँ दिये गये शुद्धोपयोग के फल में प्राप्त होनेवाले सुख के विशेषणों से भी यही सिद्ध होता है कि यहाँ शुद्धोपयोगियों से आशय अरहंत और सिद्धों से ही है।
कविवर वृन्दावनदासजी भी इस गाथा के भावानुवाद में अरहंत और सिद्धों का स्पष्ट उल्लेख करते हैं; जो इसप्रकार है -
( मनहरण कवित्त) शुद्ध उपयोग सिद्ध भयो है प्रसिद्ध जिन्हें ।
ऐसो सिद्ध अरहंतन के गाययतु है ।। आतम सुभाव से उपजो साहजिक सुख ।
सब तैं अधिक अनाकुल पाइयतु है ।।