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प्रवचनसार अनुशीलन को व्यवहारधर्म कहा जाता है। आत्मानभवी जीव के द्वारा इन्हें धारण करना भी मुक्ति के मार्ग में कथंचित् (किसी अपेक्षा) सहकारी हैं - ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है।
इस गाथा का भाव स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - ___“जब यह आत्मा किंचित्मात्र भी धर्म परिणति को प्राप्त नहीं करता हुआ, कुदेवादी को मानता है, संसार के तीव्र अभिमान में लीन रहता है, 'मैं पर का काम कर सकता हूँ, पुण्य-पाप करने योग्य हैं, पुण्य से धर्म का लाभ होता है' - ऐसे मिथ्यात्वरूप अशुभ उपयोगरूप परिणति का अवलम्बन लेता है; किन्तु मिथ्यादृष्टि छोड़कर, स्वयं शुद्ध चैतन्य अतीन्द्रिय आनन्द-कन्द है, उसका अवलम्बन नहीं लेता; तब विपरीत अभिप्राय रूप मिथ्यात्व का जोर होने से, उसके फल में वह जीव कुमनुष्य, तिर्यंच, निगोद, एकेन्द्रिय आदि में उत्पन्न होता है और नरक में भी उत्पन्न होता है।
स्वयं अविनाशी अनन्त गुणों की समाजवाला, महिमावंत प्रभु है; उसकी अरुचिवाले ने अनन्त गुणों की शुद्धता का तीव्र विरोध किया है, जिससे वह उसके फल में, अनन्त प्रतिकूलता के वेदन के स्थान में जाता है। जहाँ उसे निरंतर अरति कषाय के कारण मिलते हैं और स्वयं भी तीव्र आकुलता वेदन करने की योग्यता किया करता है। इसतरह वह अज्ञान द्वारा श्रद्धा-ज्ञान-आनन्द की विपरीतदशा के फल में, संसार परिभ्रमणरूप हजारों दु:ख के बन्ध को अनुभवता है। इसमें शान्तिमय चारित्र लेशमात्र भी नहीं होने से यह अशुभ उपयोग अत्यन्त हेय है।" ।
उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि अशुभोपयोग अत्यन्त हेय है; क्योंकि वह पापपरिणतिरूप है। वह स्वयं तो धर्मरूप है ही नहीं, उसमें रहते हुए धर्मप्राप्ति के अवसर भी नहीं हैं। अत: आत्मार्थियों को वह सर्वथा छोड़ने योग्य है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-९१-९२
शुद्धोपयोगाधिकार (गाथा १३ से गाथा २० तक)
प्रवचनसार गाथा-१३ यह एक विचित्र सहज संयोग ही है कि समयसार की आरंभिक १२ गाथाओं में पीठिका है, जिसमें संक्षेप में सम्पूर्ण समयसार का सार आ गया है। १२ गाथाओं के बाद १३ वीं गाथा से बात विस्तार से आरंभ होती है अथवा यह भी कह सकते है कि १३ वीं गाथा से जीवाधिकार अथवा जीवाजीवाधिकार आरंभ होता है।
यहाँ प्रवचनसार में भी, प्रवचनसार के ज्ञानतत्त्व प्रज्ञापन में भी आरंभ की १२ गाथाओं में पीठिका है; जिसमें संक्षेप में सब कुछ आ गया है और उसके बाद १३ वीं गाथा से शुद्धोपयोगाधिकार आरंभ होता है।
प्रवचनसार के इस ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार में चार अन्तराधिकार हैं; जो क्रमश: इसप्रकार हैं -
१. शुद्धोपयोगाधिकार, २. ज्ञानाधिकार, ३. सुखाधिकार और ४. शुभपरिणामाधिकार।
प्रवचनसार की प्रारंभिक १२ गाथाओं में से ५ गाथाओं में तो मंगलाचरण ही है; शेष सात गाथाओं में कहा गया है कि सम्यग्दर्शनज्ञानसहित चारित्र से स्वर्गादिक के वैभव के साथ निर्वाण की भी प्राप्ति होती है। जो चारित्र साक्षात् धर्म है और जिससे निर्वाण की प्राप्ति होती है वह चारित्र मोह और क्षोभ से रहित आत्मा का परिणाम है।
जो द्रव्य अथवा जो आत्मा जिस समय जिस परिणाम से परिणमित होता है, उस समय वह उससे तन्मय होता है । इसप्रकार शुद्धभाव से तन्मय आत्मा शुद्ध, शुभभाव से तन्मय आत्मा शुभ है और अशुभभाव से तन्मय आत्मा अशुभ है।