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प्रवचनसार अनुशीलन जो व्यक्ति जिनराजकथित सम्यग्दर्शन-ज्ञान सहित निर्मलज्योति से शोभायमान चारित्र को नित्य धारण करता है; वृन्दावन कवि कहते हैं कि वह व्यक्ति देवेन्द्र के सुख भोगता है, असुरेन्द्र के वैभव को प्राप्त करता है और चक्रवर्तीपद को प्राप्त कर अन्त में सिद्धपद को प्राप्त करता है। एक बार सिद्धपद को प्राप्त कर लेने पर फिर संसार में जन्म नहीं लेता। ___तात्पर्य यह है कि मुक्त हो जाने पर वह अनंतकाल तक अनंतसुख भोगता है, कभी भी संसार में नहीं भटकता।
'जीवों को दर्शन-ज्ञानप्रधानचारित्र से देवेन्द्र, असुरेन्द्र और चक्रवर्तीपद की प्राप्ति के साथ-साथ निर्वाण की प्राप्ति होती है' गाथा में कही गई उक्त बात ऊपर से एकदम सामान्य-सी प्रतीत होती है; परन्तु उसमें अत्यन्त गंभीर बात कही गई है - इसका पता आचार्य अमृतचन्द्र की तत्त्वप्रदीपिका टीका के अध्ययन से चलता है।
निर्वाण और देवेन्द्रादि पदों की प्राप्ति का मार्ग एक कैसे हो सकता है; क्योंकि निर्वाण मुक्तिस्वरूप है और ये देवेन्द्रादि पद बंधरूप हैं - इस शंका का समाधान टीका से ही प्राप्त होता है। उक्त शंका का समाधान टीका में चारित्र के सरागचारित्र और वीतरागचारित्र - ऐसे दो भेद करके किया गया है; जो इसप्रकार है
"दर्शनज्ञानप्रधान चारित्र से यदि वह चारित्र वीतरागचारित्र हो तो मोक्ष प्राप्त होता है और उससे ही यदि वह सरागचारित्र हो तो देवेन्द्र, असुरेन्द्र और नरेन्द्र के वैभवक्लेशरूप बंध की प्राप्ति होती है। इसलिए मुमुक्षुओं को इष्टफलवाला होने से वीतरागचारित्र ग्रहण करने योग्य है, उपादेय है और अनिष्टफलवाला होने से सरागचारित्र त्यागने योग्य है, हेय है।" ___पहली बात तो यह है कि गाथा और उसकी टीका - दोनों में ही चारित्र के दर्शन-ज्ञानप्रधान विशेषण पर विशेष बल दिया गया है। तात्पर्य
गाथा-६ यह है कि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के बिना चारित्र अर्थात् सम्यक्चारित्र होता ही नहीं है, क्योंकि सम्यग्दर्शन-ज्ञान के बिना चारित्र के नाम पर जो भी क्रियाकाण्ड या शुभभाव देखने में आते हैं; वे सब तो एकमात्र मिथ्याचारित्र ही हैं। ___ दूसरी बात यह है कि सरागचारित्र और वीतरागचारित्र - ये दोनों भेद सम्यक्चारित्र के ही हैं। यह समझना बहुत बड़ी भूल होगी कि सरागचारित्र मिथ्याचारित्र और वीतरागचारित्र सम्यक्चारित्र होगा; क्योंकि चारित्र के सम्यक्पने का आधार सम्यग्दर्शन-ज्ञान सहित होना ही है। तात्पर्य यह है कि सराग और वीतराग - दोनों ही चारित्र सम्यग्दृष्टि धर्मात्माओं के ही होते हैं, मिथ्यादृष्टियों के नहीं।
ऐसा होने पर भी सरागचारित्र रागसहित होने के कारण अनिष्ट - फलवाला है, बंध का कारण है और वीतरागचारित्र वीतरागता सहित होने के कारण इष्टफलवाला है, मोक्ष का कारण है - ऐसा कहा गया है।
वस्तुत: बात यह है कि बंध का कारण तो राग ही है, चारित्र नहीं; क्योंकि निश्चय से चारित्र तो वीतरागभाव का ही नाम है । राग को तो सहचारी होने से व्यवहार से चारित्र कह दिया गया है । वस्तुत: तो वह चारित्र नहीं, चारित्र का दोष है। ___आचार्य अमृतचन्द्र ने यह बात उत्थानिका में ही स्पष्ट कर दी थी कि वीतरागचारित्र इष्टफल वाला है; इसलिए उपादेय है और सरागचारित्र अनिष्टफलवाला है; अत: हेय है - अब यह बताते हैं।
तीसरी बात यह है कि जिन इन्द्रादि पदों को और चक्रवर्ती के वैभव को जगत इष्ट मानता है, सुखरूप मानता है; उन्हें यहाँ अनिष्ट कहा है, क्लेशरूप कहा गया है, बंधरूप कहा गया है।
इसीप्रकार का भाव आचार्य जयसेन की तात्पर्यवृत्ति में भी व्यक्त किया गया है।