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प्रवचनसार अनुशीलन
न केवल उनकी चर्चा ही करते हैं; अपितु उनके स्वरूप पर भी प्रकाश डालते हैं, उन्हें परिभाषित करते हैं।
इसीप्रकार मनुष्यक्षेत्र को ४५ लाख योजन टीकाओं के आधार पर ही लिखा गया है।
बनारसीदासजी के नाटक समयसार का आधार तो मात्र आत्मख्याति टीका में समागत कलश (छन्द) और राजमलजी पाण्डे द्वारा लिखित उन कलशों की टीका ही है। उसमें आचार्य कुन्दकुन्द के समयसार की गाथाओं व आत्मख्याति टीका के गद्यभाग को आधार नहीं बनाया है; किन्तु प्रवचनसार परमागम में वृन्दावनदासजी प्रवचनसार की मूल गाथाओं; उनकी आचार्य अमृतचन्द्रकृत तत्त्वप्रदीपिका नामक संस्कृत टीका और पाण्डे हेमराजजीकृत हिन्दी टीका को आधार बनाकर बात करते हैं। इस बात का उल्लेख भी उन्होंने स्वयं किया; जो इसप्रकार है -
तामें प्रवचनसार की बाँचि वचनिका मंजु ।
छन्दरूप रचना रचों उर धरि गुरुपदकंजु ।।५७।। आचार्य कुन्दकुन्दकृत उन ग्रन्थों में प्रवचनसार ग्रन्थ की आचार्य अमृतचन्द्रकृत तत्त्वप्रदीपिका टीका की पाण्डे राजमलजीकृत सुन्दर वचनिका (टीका) पढ़कर मैं गुरुओं के चरण कमलों को हृदय में धारण कर छन्दरूप रचना करता हूँ दृढ़ संकल्प __ इसकवार मतेरेखते हैं विदासिकल सिमबनकसीरमजीत नाटक समयमाह में पैर कृविकता झाक्तनझामहीकूल तानाश्चतरूपसइस में मजकिदष्टपरपदार्थ से हटकर स्वभावसन्मुख होगी, अपने आत्मा
की तरफ होगी; तब इसे स्वयमेव ही आत्मा का ज्ञान, आत्मा का दर्शन, आत्मा का ध्यान अर्थात् सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की प्राप्ति हो जायेगी।
- समयसार का सार, पृष्ठ१०२
प्रवचनसार गाथा-६ मंगलाचरण संबंधी पाँच गाथाओं में से पाँचवीं गाथा में विशुद्धदर्शनज्ञान प्रधान आश्रम को प्राप्त करके निर्वाण की प्राप्ति के लिए साम्यभाव को प्राप्त होने की बात कही थी।
उक्त दर्शनज्ञानप्रधान आश्रम या साम्यभाव सम्यक्चारित्र ही है। अत: अब इस छटवीं गाथा में उक्त चारित्र के फल का निरूपण करते हैं; क्योंकि जबतक हमें यह पता न चले कि जिस कार्य को करने के लिए हमें प्रेरित किया जा रहा है; उसके करने से हमें क्या लाभ होगा; तबतक उस कार्य में हमारी प्रवृत्ति रुचिपूर्वक नहीं होती। मूल गाथा इसप्रकार है -
संपजदि णिव्वाणं देवासुरमणुरायविहवेहिं। जीवस्स चरित्तादो दंसणणाणप्पहाणादो ।।६।।
(हरिगीत) निर्वाण पावैसुर-असुर-नरराज के वैभव सहित ।
यदि ज्ञान-दर्शनपूर्वक चारित्र सम्यक् प्राप्त हो ।।६।। इस जीव को दर्शनज्ञानप्रधान चारित्र से देवेन्द्र, असुरेन्द्र और नरेन्द्रों के वैभव के साथ-साथ निर्वाण की प्राप्ति होती है।
उक्त गाथा का भावानुवाद कविवर वृन्दावनदासजी प्रवचनसार परमागम में इसप्रकार करते हैं -
(चौबोला) जो जन श्री जिनराजकथित नित चित्तविर्षे चारित्त धरै। सम्यक्दर्शनज्ञान जहाँ अमलान विराजित जोति भरै ।। सो सुर इन्द वृन्द सुख भोगै असुर इन्द्र को विभव वरै। होय नरिन्द सिद्धपद पावै फेरि न जग में जन्म धरै ।।१७।।