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गाथा-८५
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प्रवचनसार अनुशीलन है और स्वभाव के सामर्थ्य की खबर नहीं; इसप्रकार जिसे पदार्थों की खबर नहीं, वह पदार्थों को अन्यथा अंगीकार (ग्रहण) करता है, वही मिथ्याभाव है।'
दुखी जीव ज्ञान के ज्ञेय हैं, किन्तु अज्ञानी उसे करुणा का कारण बनाता है। तिर्यंच और मनुष्य मात्र मध्यस्थभाव से देखनेयोग्य हैं, फिर भी अज्ञानी जीव अज्ञान द्वारा संयोगों में एकत्वबुद्धिरूप करुणा करता है।
प्रश्न – सम्यग्दृष्टि का अनुकम्पा भी एक लक्षण कहा है, किन्तु यहाँ जो उसे दर्शनमोह का लक्षण कहा है, इसका क्या अर्थ है ?
समाधान - अनुकम्पा तो राग है। सम्यग्दृष्टि को अज्ञानरहित - ऐसा राग आता है, इतनी पहचान कराई है। आत्मा ज्ञानस्वरूप हैजाननेवाला है, इसे छोड़कर-भूलकर ये मनुष्य और तिर्यंचादि दुखी हैं-वे मिथ्यात्व से दुखी हैं - ऐसा ज्ञानी मानता है। मुझे उनके कारण उनके प्रति करुणा आई है - ऐसा माननेरूप करुणा मिथ्यात्व का लक्षण है।
ज्ञान जानता है कि ये ज्ञेय हैं, किन्तु उनको जानने के बदले कोई ऐसा माने कि उनके कारण मुझे दुख होता है अथवा वह प्राणी हैरान होता है तो वह मिथ्यादृष्टि है। मेरी कमजोरी के दोष के कारण मुझे करुणा आती है - ऐसा मानना वह अलग बात है; किन्तु इस जीव के कारण मुझे करुणा आती है - ऐसा जो मानता है, वह तो पर के कारण राग, द्वेष, मोह का होना मानता है; इसलिए वह मिथ्यादृष्टि है।
सम्पूर्ण विश्व को ज्ञान का ज्ञेय बनाना चाहिए, इसके बदले उन्हें करुणा का कारण बनाता है। अपनी वर्तमान योग्यता से करुणा आए, वह अलग बात है। ___ यदि अपनी अवस्था में करुणा पर के कारण आती हो तो दुखी जीव तो तीनों ही काल रहेंगे, जिससे तीनों ही काल पुण्य का राग आता रहेगा १.दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-२३९ २. वही, पृष्ठ-२३९-३४० ३. वही, पृष्ठ-२४०
और उनसे पुण्य का बंधन भी होता रहेगा, जिससे अबन्ध होने का कभी अवसर ही नहीं आएगा।
अज्ञानियों को भी संयोग का दुख नहीं है; अपितु वे अपने आनन्दस्वभाव को भूल गए हैं, इसलिए दुखी हैं।'
वह संयोग के कारण दुखी हैं और उनको देखकर उनके कारण मैं दुखी हुआ तो उसने अजीव से आस्रव का होना माना, इसलिए उसे मिथ्यात्वसहित करुणा है।
देव दुखी नहीं दिखते और नारकी सामने दिखाई नहीं देते, इसलिए यहाँ मनुष्य और तिर्यंच को लिया है।
स्वयं की कमजोरी से करुणा आई है - ऐसा ज्ञानी मानते हैं, किन्तु अज्ञानी पर के कारण करुणा हुई है - ऐसा मानते हैं। ज्ञानी को भी दुखी जीवों को देखकर करुणा का भाव आता है; किन्तु वे ऐसा जानते हैं कि वे जीव अपने ज्ञानस्वभाव को भूल गए हैं; इसलिए दुखी हैं। वे दुखी हैं; इसलिए मुझे करुणा आई है - ऐसा ज्ञानी नहीं मानते।
जगत के पदार्थ अनन्त हैं और त्रिकाल हैं, इसलिए पर के कारण करुणा होती है - ऐसा माननेवाले का अनन्तानुबंधी राग दूर नहीं होगा। जगत के जीव देखने-जाननेयोग्य हैं। केवलज्ञानी सभी को देखते हैं, किन्तु उनको करुणा का विकल्प नहीं आता।
तिर्यंच, मनुष्य जानने लायक होने से वे ज्ञान में मात्र ज्ञेयपने निमित्त हैं - ऐसा नहीं मानता। उनके आधार से मुझे करुणा आती है - ऐसा मानना वह मिथ्याशल्य है । वह दोष ज्ञानस्वभाव के आश्रय से ही दूर होता है।
अज्ञानी मात्र जानने का काम तो नहीं करता, किन्तु जाननेयोग्य पदार्थ
१. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-२४१ ३. वही, पृष्ठ-२४२ ५. वही, पृष्ठ-२४५
२. वही, पृष्ठ-२४२ ४. वही, पृष्ठ-२४३-२४४ ६. वही, पृष्ठ-२४६