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गाथा-८५
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प्रवचनसार गाथा-८५ विगत गाथाओं में यह स्पष्ट किया गया है कि बंध का कारण होने से मोह-राग-द्वेष सर्वथा हेय हैं, नाश करनेयोग्य हैं।
अब इस गाथा में यह बताते हैं कि जिस मोह का त्याग करना है, नाश करना है; उस मोह की पहिचान कैसे हो, उस मोह की पहिचान का चिह्न क्या है? गाथा मूलत: इसप्रकार है -
अढे अजधागहणं करुणाभावो य तिरियमणुएसु । विसएसु य प्पसंगो मोहस्सेदाणि लिंगाणि ।।८५।।
(हरिगीत) अयथार्थ जाने तत्त्व को अति रती विषयों के प्रति ।
और करुणाभाव ये सब मोह के ही चिह्न हैं ।।८५।। पदार्थों का अयथार्थ ग्रहण, तिर्यंच और मनुष्यों के प्रति करुणाभाव तथा विषयों का प्रसंग अर्थात् इष्ट विषयों के प्रति प्रेम और अनिष्ट विषयों से द्वेष - ये सब मोह के चिह्न हैं।
उक्त गाथा का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार करते हैं
“पदार्थों की अयथार्थ प्रतिपत्ति और तिर्यंच और मनुष्यों के प्रेक्षायोग्य होने पर भी उनके प्रति करुणाबुद्धि से मोह को, इष्टविषयों की आसक्ति से राग को तथा अनिष्ट विषयों की अप्रीति से द्वेष को - इसप्रकार तीनों चिह्नों से तीनों प्रकार के मोह को पहिचान कर उत्पन्न होते ही नष्ट कर देना चाहिए।"
वैसे तो आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में इस गाथा के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र की तत्त्वप्रदीपिका के समान ही स्पष्ट करते हैं; फिर भी वे
करुणाभाव शब्द का अर्थ निश्चय से करुणाभाव और व्यवहार से करुणा का अभाव - इसप्रकार दो प्रकार से करते हैं। जो कुछ भी हो, पर इतना तो सुनिश्चित ही है कि निश्चय से करुणाभाव कहकर उन्होंने भी आचार्य अमृतचन्द्र के अभिप्राय को प्राथमिकता दी है। __ कविवर वृन्दावनदासजी प्रवचनसार परमागम में इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
(द्रुमिला) अजथारथरूप पदारथ को, गहिकै निहचै सरधा करिवो। पशुमानुष में ममता करिकै, अपने मन में करुना धरिवो ।। पुनि भोगविर्षे मह इष्ट-अनिष्ट, विभावप्रसंगिन को भरिवो। यह लच्छन मोह को जानि भले, मिल्यौ जोग है इन्हें हरिवो।।३९।।
(दोहा) तीन चिह्न यह मोह के, सुगुरु दई दरसाय ।
'वृन्दावन' अब चूकि मति, जड़तें इन्हें खपाय ।।४०।। पदार्थों का अयथार्थ रूप ग्रहण कर उसे ही वस्तु का वास्तविक स्वरूप समझना व पशुओं और मानवों पर अपनत्व-ममत्वपूर्वक अपने मन में करुणाभाव धारण करना तथा पंचेन्द्रियों के भोगों में इष्ट-अनिष्टबुद्धि पूर्वक राग-द्वेष करना - ये मोह के चिह्न हैं - ऐसा जानकर इनका त्याग करने का योग प्राप्त हुआ है।
मोह के ये तीन चिह्न हैं - ऐसा सुगुरु ने बताया है। कविवर वृन्दावनजी कहते हैं कि अब चूकना योग्य नहीं है, इन्हें जड़मूल से उखाड़ फेंकने में ही सार है।
गुरुदेव श्री कानजी स्वामी इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
"जीव ज्ञानस्वरूप है, विभाव विपरीत है, निमित्त पृथक् है - ऐसा नहीं मानता और निमित्त से लाभ मानता है, विभाव को अनुकूल मानता