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________________ प्रवचनसार अनुशीलन इनमें परस्पर निमित्त - नैमित्तिक संबंध है। जब मिथ्यात्वरूप दर्शनमोहनीय कर्म का उदय होता है तो आत्मा में पर में अपनत्वरूप मिथ्याभाव होते हैं और जब पर में अपनत्वरूप मिथ्याभाव होते हैं तो उनके निमित्त से मिथ्यात्वादि द्रव्यकर्मों का बंध होता है। यह दुष्चक्र ही मोह की प्रबल ग्रंथि (गाँठ) है; जो अरहंत भगवान को द्रव्य-गुण-‍ -पर्याय कर उसीप्रकार अपने आत्मा को जानने से शिथिल होती है, पर से भिन्न अपने आत्मा में अपनापन स्थापित होकर अपने आत्मा में ही जमनेरमने से हटती विज्ञान हाता है। स्व-पर में जो भेद है, उसे जानना ही भेदविज्ञान है; क्योंकि जैनदर्शन में जो मुक्ति की प्राप्ति उपाय है, सुखी होने का उपाय है, संसार से छूटने का उपाय है, मोहराग-द्वेष के परिणामों को समाप्त करने का उपाय है; वह एकमात्र आत्मज्ञान एवं आत्मध्यान की प्रक्रिया का ही मार्ग है। ३७८ आजतक जितने भी तीर्थंकर या मुक्ति जानेवाले साधक हुए हैं; सभी ने केवलज्ञान की प्राप्ति आत्मा के ध्यान के काल में ही की है। ध्यान करते-करते ही उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हुई है। आशय यह है कि सभी मुक्ति के साधक अल्पज्ञ से सर्वज्ञ, आत्मा से परमात्मा, सरागी से वीतरागी, संसारी से मुक्त इस ध्यान की अवस्था में ही बने हैं। यदि हम गंभीरता से इस बात पर विचार करें कि जब भगवान महावीर को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई थी, सर्वज्ञता की प्राप्ति हुई थी, जब वे अनंत सुखी, पूर्ण वीतरागी हुए थे; तब वे क्या कर रहे थे ? तो इसका स्पष्ट उत्तर होगा कि वे ध्यान कर रहे थे । तब यह प्रश्न होता है कि किसका ध्यान कर रहे थे ? तो उत्तर होगा कि अपने आत्मा का । इसका तात्पर्य यही है कि प्रत्येक आत्मा को, प्रत्येक साधक को, मुक्ति की प्राप्ति; निज लक्ष्य की प्राप्ति, स्वयं अपने आत्मा के ध्यान से ही होती है। - समयसार का सार, पृष्ठ १०४ प्रवचनसार गाथा - ८१ ८०वीं गाथा में दर्शनमोह के नाश की बात की है और अब ८१ वीं गाथा में चारित्रमोह के नाश की बात करते हैं। गाथा मूलतः इसप्रकार है - जीवो ववगदमोहो उवलद्धो तच्चमप्पणो सम्मं । जहदि जदि रागदोसे सो अप्पाणं लहदि सुद्धं । । ८१ ।। ( हरिगीत ) जो जीव व्यपगत मोह हो निज आत्म उपलब्धि करें। छोड़ दें यदि राग-रुष शुद्धात्म उपलब्धि करें । । ८१ । । जिसने मोह दूर किया है और आत्मा के सच्चे स्वरूप को प्राप्त किया है; वह जीव यदि राग-द्वेष को छोड़ता है तो शुद्ध आत्मा को प्राप्त करता है। उक्त गाथा की उत्थानिका में आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं कि इसप्रकार मैंने सम्यग्दर्शनरूप चिन्तामणिरत्न प्राप्त कर लिया है; तथापि इसे लूटने के लिए प्रमादरूपी चोर विद्यमान हैं; ऐसा विचार कर वह ज्ञानी सम्यग्दृष्टि आत्मा जागृत रहता है, जागता रहता है, सावधान रहता है। विगत गाथा में दर्शनमोह के नाश की विधि बताई गई थी और इस गाथा में चारित्रमोह के नाश की विधि बता रहे हैं। इस गाथा के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “विगत गाथा में प्रतिपादित उपाय के अनुसार दर्शनमोह को दूर करके भी अर्थात् आत्मतत्त्व को भलीभाँति प्राप्त करके भी जब यह जीव राग-द्वेष को निर्मूल करता है, तब शुद्ध आत्मा अनुभव करता है; किन्तु यदि पुनः पुनः उन राग-द्वेष का अनुसरण करता है, राग-द्वेषरूप परिणमन करता है तो प्रमाद के आधीन होने से शुद्धात्मतत्त्व के अनुभवरूप
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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