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प्रवचनसार अनुशीलन
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इसके आगे बढ़ना तो उपचार में उपचार होगा।
प्रश्न- आत्मा और परमात्मा की पर्याय में कोई अन्तर नहीं है - यह बात गले नहीं उतरती; क्योंकि कहाँ हम रागी-द्वेषी अल्पज्ञ और कहाँ वे वीतरागी सर्वज्ञ ?
उत्तर - हमारी और उनकी पर्याय में जो अन्तर है, वह तो आपको स्पष्ट दिखाई दे ही रहा है और उक्त अन्तर को समाप्त करने के लिए ही अपना यह सब पुरुषार्थ है ।
अब रही बात अन्तर नहीं होने की सो यहाँ जो द्रव्य-गुण- पर्याय का स्वरूप बताया है; उसमें यह बात स्पष्ट ही है।
अन्वय सो द्रव्य, अन्वय का विशेषण गुण और अन्वय का व्यतिरेक पर्याय है- यही कहा है यहाँ ।
है, है और है; निरन्तर होते रहने का नाम अन्वय है । सत्तास्वरूप वस्तु निरन्तर ही विद्यमान रहती है; भगवान आत्मा भी सत्तास्वरूप वस्तु है और वह भी अन्वयरूप से निरन्तर रहता है; इसीकारण द्रव्य है ।
अन्वयरूप से विद्यमान वस्तु की अन्वयरूप से रहनेवाली विशेषताएँ ही गुण हैं । भगवान आत्मा के ज्ञान, दर्शन आदि गुण आत्मा में निरन्तर ही रहते हैं।
विगत पर्याय में वर्तमान पर्याय का नहीं होना ही अन्वय का व्यतिरेक है । द्रव्य और गुणों के समान अन्वयों के व्यतिरेक भी अरहंत के समान अपने आत्मा सदा रहते हैं।
जिसप्रकार अरहंत भगवान की पर्याय प्रतिसमय पलटती है; उसीप्रकार हमारी पर्याय भी पलटती है। पर्याय का स्वभाव ही पलटना है। वस्तुतः पलटने का नाम ही पर्याय है; जो आत्मा और परमात्मा में समान ही है।
प्रश्न- यदि आप कहते हो तो हम अरहंत भगवान को द्रव्य-गुणपर्यायरूप से समझ लेंगे और अपने आत्मा को भी उसीप्रकार समझ लेंगे;
गाथा-८०
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पर इससे मोह का नाश कैसे हो जायेगा ? मात्र समझने से मोह का नाश हो जायेगा, कुछ और करना नहीं पड़ेगा ?
उत्तर - दृष्टि के विषयभूत अपने त्रिकाली ध्रुव आत्मा को सही रूप में समझ लेने पर यह भी समझ में आ जायेगा कि यह त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा मैं ही हूँ, कोई अन्य नहीं ।
यह स्पष्ट हो जाने पर अबतक जिन देहादि परपदार्थों में और रागादि विकारी भावों में अपनापना था, वह नियम से टूट जायेगा ।
पर और विकार में अपनेपन का नाम ही मोह है, मिथ्यात्व है और अपने त्रिकाली ध्रुव आत्मा में अपनेपन का नाम ही मोह का नाश है, सम्यग्दर्शन है । अत: यह स्पष्ट ही है कि पर और विकार से अपनापन टूटते ही तथा अपने ज्ञानानंदस्वभावी आत्मा में अपनत्व आते ही मोह का नाश होना, मिथ्यात्व का नाश होना, सम्यग्दर्शन का प्राप्त होना अनिवार्य ही है।
एकप्रकार से पर में से अपनत्व टूटना और मोह का नाश होना एक ही बात है। इसीप्रकार अपने में अपनापन होना और सम्यग्दर्शन होना भी एक ही बात है।
वस्तुत: बात यह है कि पर से अपनत्व टूटने और मोह ( मिथ्यात्व ) नाश होने का एक काल है। उक्त दोनों कार्य एकसमय में ही होते हैं।
यद्यपि ये दोनों भिन्न-भिन्न द्रव्यों की पर्यायें हैं, तथापि दोनों में परस्पर सहज निमित्त-नैमित्तिक भाव बन रहा है। पर में अपनत्व भावमिथ्यात्व है और वह आत्मा के श्रद्धागुण की विकारी पर्याय है तथा मिथ्यात्व नामक दर्शनमोहनीय कर्म पौद्गलिक कार्माणवर्गणाओं का कार्य है, पर्याय है। इसप्रकार पर में अपनत्वरूप भाव चेतन का परिणमन होने से चेतन है और कार्माणवर्गणा से निर्मित दर्शनमोहनीय कर्म जड़पुद्गल का परिणमन होने से जड़ है।