________________
गाथा-६९-७०
२९९
२९८
प्रवचनसार अनुशीलन __यद्यपि तात्पर्यवृत्ति में आचार्य जयसेन इन गाथाओं का भाव तत्त्वप्रदीपिका के अनुसार ही करते हैं; तथापि वे एकार्थवाची से लगनेवाले गुरु और यति शब्दों का भाव स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि इन्द्रियजय से शुद्धात्मस्वरूपलीनता में प्रयत्नशील साधु यति हैं और स्वयं भेदाभेदरत्नत्रय के आराधक तथा उस रत्नत्रय के अभिलाषी भव्यों को जिनदीक्षा देनेवाले साधु गुरु हैं।
इन गाथाओं का पद्यानुवाद कविवर वृन्दावनदासजी इसप्रकार करते हैं
(मत्तगयन्द) जो जन श्रीजिनदेव-जती-गुरु, पूजनमाहि रहै अनुरागी। चार प्रकार के दान करे नित,शील विषै दिढ़ता मन पागी ।। आदरसों उपवास करै, समता धरिकै ममता मद त्यागी। सोशुभरूपपयोग धनी, वर पुण्य को बीज बवै बड़भागी।।१।।
जो मनुष्य देव-गुरु-यति की पूजा का अनुरागी है, चार प्रकार के दान सदा करता है और जिसका मन शीलव्रतों के पालने में दृढ़ है तथा जो बड़े ही आदरभाव से उपवास करता है, समता को धारण करता है और ममता तथा मद का त्यागी है; शुभोपयोग का धनी वह भाग्यवान उत्कृष्ट पुण्य के बीज को बोता है।
(कवित्त) शुभपरिनामसहित आतम की, दशा सुनो भवि वृन्द सयान । उत्तम पशु अथवा उत्तम नर, तथा देवपद लहै सुजान ।। थिति परिमान पंच इन्द्रिनि के, सुख विलसै तित विविध विधान । फेरि भ्रमे भवसागर ही में, ताः शुद्धपयोग प्रधान ।।२।।
कविवर वृन्दावनदासजी कहते हैं कि हे भव्यजीवों ! तुम ध्यान से सुनो कि आत्मा की शुभपरिणामरूप दशा के फल में जीव उत्तम पशु
अथवा उत्तम मनुष्य अथवा देवपद प्राप्त करते हैं और वहाँ पर वे जीव आयु के अनुसार सीमित समय तक विविधप्रकार के पंचेन्द्रियों के विषयों के सुख भोगते हैं। अन्ततोगत्वा संसार में ही भटकते रहते हैं; इसलिए शुद्धोपयोग ही प्रधान है, महान है।
उक्त गाथा और उनकी टीकाओं का भाव स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"शुभोपयोग इन्द्रिय सुख का साधन है; वह अतीन्द्रिय आनन्द का साधन नहीं । यहाँ धर्मानुराग का अर्थ पुण्य समझना । देव-गुरु-यति की पूजा, दान, शील, उपवास सभी शुभभाव हैं। महाव्रत और प्रतिमा शील में आ जाते हैं।
ज्ञानी को शुभराग आता है - यह बात सही है; किन्तु वह ज्ञानतत्त्व का साधन नहीं है। आत्मा ज्ञानस्वरूप है, उसकी एकाग्रता ही साधन है। यहाँ चार प्रकार के दान से शुभभाव कहा; किन्तु उससे संसार परित (नष्ट) हो जाये - ऐसा नहीं कहा; देव-गुरु व यति की पूजा से संवर होता है - ऐसा नहीं कहा । कितने ही लोग कहते हैं कि पूजा से आस्रव दूर होता है
और संवर बढ़ता है; किन्तु यह बात सही नहीं है। ___शुभ के फल में देव गति, मनुष्य गति और तिर्यंच गति का अनित्य
और काल्पनिक सुख मिलता है। ___यह आत्मा इन्द्रिय सुख के साधनभूत व्रत, पूजा, दानादि के शुभोपयोग की सामर्थ्य से इन्द्रिय सुख की आधारभूत ऐसी तिर्यंचपने की मनुष्यपने की और देवपने की भूमिका में से कोई एक भूमिका को प्राप्त करता है। शुभभाव से पैसेवाला होता है, राजा होता है तथा भोगभूमि में जाता है।' __ आत्मा का कभी नाश नहीं होता, इसलिए उसके आधार से जो शाश्वत आनन्द और सुख मिलता है, वह सादि अनन्त काल तक रहता है, १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-१३३ २. वही, पृष्ठ-१३५ ३. वही, पृष्ठ-१३७