________________
शुभपरिणामाधिकार
( गाथा ६९ से गाथा ९२ तक ) प्रवचनसार गाथा ६९-७०
प्रवचनसार परमागम के प्रथम महाधिकार ज्ञानतत्त्व प्रज्ञापन के अन्तर्गत आनेवाले शुद्धोपयोगाधिकार, ज्ञानाधिकार और सुखाधिकार की चर्चा के उपरान्त अब अन्त में शुभपरिणामाधिकार की चर्चा आरंभ करते हैं।
प्रवचनसार की इन ६९-७०वीं और शुभपरिणामाधिकार की पहलीदूसरी गाथाओं में इन्द्रियसुख के साधनरूप शुभपरिणाम का स्वरूप और फल दिखाते हैं।
गाथायें मूलतः इसप्रकार हैं
देवदजदिगुरुपूजासु चेव दाणम्मि वा सुसीलेसु । उववासादिसु रत्तो सुहोवओगप्पगो अप्पा । । ६९।। जुत्तो सुहेण आदा तिरिओ वा माणुसो व देवो वा । भूदो तावदि कालं लहदि सुहं इन्दियं विविहं । । ७० ।। ( हरिगीत )
देव - गुरु-यति अर्चना अर दान उपवासादि में।
अरशील में जो लीन शुभ उपयोगमय वह आतमा । । ६९ ।। अरे शुभ उपयोग से जो युक्त वह तिर्यग्गति ।
अर देव मानुष गति में रह प्राप्त करता विषयसुख । ।७० ।।
देव, गुरु और यतियों की पूजा में, दान में, सुशीलों और उपवासादिक
आत्मा शुभोपयोगी है।
शुभोपयोग से युक्त आत्मा तिर्यंच, मनुष्य अथवा देव होकर उतने समय तक अनेक प्रकार के इन्द्रियसुख प्राप्त करता है ।
गाथा - ६९-७०
२९७
यहाँ नरक गति को छोड़कर शेष तीन गतियाँ ली हैं; क्योंकि नरक गति शुभपरिणाम का फल नहीं है; किन्तु तिर्यंच आयु को शुभ माना
गया है।
मनुष्य गति के समान तिर्यंच गति के जीव भी मरना नहीं चाहते। यदि उन्हें मारने की कोशिश करें तो वे जान बचाने के लिए भागते हैं। इससे आशय यह है कि वे उसे अच्छा मानते हैं; अत: तिर्यंच होना शुभ है, शुभ का फल है; इसप्रकार शुभ के फल में तीन गतियाँ ली हैं; नरकगति नहीं ली। तिर्यंच गति के जीव भी शुभोपयोग के फल में सुख प्राप्त करते हैं। तिर्यंच भोग-भूमियाँ भी होते हैं; पर नारकी भोगभूमियाँ नहीं होते ।
अमेरिका के कुत्ते और बिल्लियों को रहने के लिए एयर कंडीशन घर एवं घूमने के लिए कारें मिलती हैं। उनके भी ऐसे पुण्य का उदय है; परन्तु ऐसे पुण्य का उदय नारकी के नहीं है; इसलिए यहाँ तिर्यंच को तो शुभोपयोग के फल में शामिल किया, पर नारकी को शामिल नहीं किया।
इन गाथाओं का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
"जब यह आत्मा दुख की साधनभूत द्वेषरूप और इन्द्रियविषय की अनुरागरूप अशुभोपयोग भूमिका का उल्लंघन करके देव-गुरु-यति की पूजा, दान, शील और उपवासादि के प्रीतिस्वरूप धर्मानुराग को अंगीकार करता है, तब वह इन्द्रियसुख की साधनभूत शुभोपयोग भूमिका में आरूढ़ कहलाता है।
यह आत्मा इन्द्रियसुख के साधनभूत शुभोपयोग की सामर्थ्य से उसके अधिष्ठानभूत (इन्द्रियसुख के आधारभूत) तिर्यंच, मनुष्य और देवत्व की भूमिकाओं में से किसी एक भूमिका को प्राप्त करके जितने समय तक उस गति में रहता है; उतने समय तक अनेक प्रकार के इन्द्रियसुख प्राप्त करता है। '
|"