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प्रवचनसार अनुशीलन
होने पर भी आदर करने लायक नहीं है। ज्ञानसामान्यस्वभाव के ऊपर तैरनेवाला केवलज्ञान अंगीकार करनेयोग्य है; यह बात यहाँ चलती है।"
उक्त गाथा और उसकी टीकाओं में पाँच कारणों से अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष ज्ञान को अनाकुल और पारमार्थिक सुखस्वरूप कहा है।
जिनके कारण अतीन्द्रिय प्रत्यक्षज्ञान को पूर्णतः अनाकुल और पारमार्थिक सुखस्वरूप कहा है; वे पाँच कारण इसप्रकार हैं -
प्रथम तो वह अतीन्द्रियज्ञान स्वाधीन है; इसकारण निराकुल है; दूसरे उसके जानने के सम्पूर्ण द्वार खुले हुए हैं, इसकारण निराकुल है; तीसरे सभी पदार्थों को जान लेने से किसी को भी जानने की इच्छा न रहने से निराकुल है; चौथे सभी को संशयादि रहित जानने के कारण विमल होने से निराकुल है और पाँचवें सभी को एकसाथ जान लेने के कारण क्रमश: होनेवाले पदार्थों के ग्रहण से होनेवाले खेद से रहित होने के कारण निराकुल है।
इसप्रकार उक्त पाँच कारणों से अनाकुल होने के कारण प्रत्यक्षज्ञान परमार्थतः सुखस्वरूप ही है।
इसके विरुद्ध परोक्षज्ञान पराधीन होने से आकुलतामय है, अन्य द्वारों के अवरुद्ध होने के कारण आकुलतामय है, पूर्णज्ञान न होने से शेष पदार्थों को जानने की इच्छा के कारण आकुलित है, समल होने से संशयादि के कारण आकुलित है और अवग्रहादि पूर्वक जानने के कारण क्रमश: जानने के खेद से आकुलित है।
इसप्रकार उक्त पाँच कारणों से परोक्षज्ञान अत्यन्त आकुलित होने से सुखस्वरूप नहीं है।
इसप्रकार यह निश्चित हुआ कि अतीन्द्रिय प्रत्यक्षज्ञान अर्थात् केवलज्ञान अतीन्द्रिय सुखस्वरूप होने से उपादेय है और इन्द्रियज्ञानरूप परोक्षज्ञान सुखस्वरूप नहीं होने से हेय है।
तात्पर्य यह है कि इन्द्रियज्ञान और इन्द्रियसुख हेय है और अतीन्द्रिय
प्रवचनसार गाथा-६० विगत गाथा में जोर देकर यह कहा था कि अतीन्द्रिय प्रत्यक्षज्ञान अर्थात् केवलज्ञान पारमार्थिक सुखस्वरूप है और अब इस गाथा में उक्त कथन में आशंका व्यक्त करनेवालों का समाधान कर रहे हैं। - इस गाथा की उत्थानिका में आचार्य अमृतचन्द्रदेव स्वयं लिखते हैं कि केवलज्ञान को भी परिणाम के द्वारा खेद हो सकता है; इसकारण केवलज्ञान एकान्तिकसुख नहीं है' - अब इस मान्यता का खण्डन करते हैंगाथा मूलत: इसप्रकार है - जं केवलं ति णाणं तं सोक्खं परिणमं च सो चेव । खेदो तस्स ण भणिदो जम्हा घादी खयं जादा ।।६।।
(हरिगीत) अरे केवलज्ञान सुख परिणाममय जिनवर कहा।
क्षय हो गये हैं घातिया रे खेद भी उसके नहीं ।।६।। जो केवल नाम का ज्ञान है अर्थात् केवलज्ञान है, वह सुख है, परिणाम भी वही है और उसे खेद नहीं कहा है; क्योंकि घातिकर्म क्षय को प्राप्त हो गये हैं।
तत्त्वप्रदीपिका टीका में उक्त गाथा के भाव को स्पष्ट करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं -
“यहाँ केवलज्ञान के सन्दर्भ में यह स्पष्ट किया जा रहा है कि खेद क्या है, परिणाम क्या है तथा केवलज्ञान और सुख में व्यतिरेक (भेद) क्या है कि जिसके कारण केवलज्ञान को एकान्तिक सुखत्व न हो?
प्रथम तो खेद के आयतन घातिकर्म हैं, केवल परिणाम नहीं। घातिकर्म महामोह के उत्पादक होने से धतूरे की भाँति अतत् में तत्बुद्धि धारण कराके आत्मा को ज्ञेयपदार्थों के प्रति परिणमन कराते हैं, ज्ञेयार्थपरिणमन