SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६६ प्रवचनसार अनुशीलन गाथा-५९ २६७ नहीं है। यह प्रत्यक्षज्ञान पूर्णतः अनाकुल है; क्योंकि यह प्रत्यक्षज्ञान अनादि ज्ञानसामान्यरूप स्वभाव पर महाविकास से व्याप्त होकर स्वतः स्वयं से उत्पन्न होने से स्वाधीन है; समस्त आत्मप्रदेशों से प्रत्यक्ष ज्ञानोपयोगरूप होकर व्याप्त होने से इसके सभी द्वार खुले रहते हैं; समस्त वस्तुओं के ज्ञेयाकारों को सर्वथा पी जाने से परम विविधता में व्याप्त रहने से अनंत पदार्थों में विस्तृत है; इसलिए सर्व पदार्थों को जानने की इच्छा का अभाव है; सकलशक्ति को रोकनेवाले कर्मसामान्य के निकल जाने से अत्यन्त स्पष्ट प्रकाश से प्रकाशमान स्वभाव में व्याप्त होने से विमल है; इसकारण सबको सम्यकप से जानता है तथा जिन्होंने अपने त्रैकालिक स्वरूप को युगपद समर्पित किया है - ऐसे लोकालोक में व्याप्त होकर रहने से अवग्रहादि से रहित है, इसलिए होनेवाले पदार्थग्रहण के खेद से रहित सोई है प्रतच्छ ज्ञान अतिंद्री अनाकुलित, याही अतिंद्रियसुख याको नाम पगा है ।।२३।। जो ज्ञान अपने स्वभाव से ही जागृत हुआ है, सर्वांग निरावरण होने से जो ज्ञान अनंत पदार्थों में फैल कर जगमगा रहा है, सर्वांग अभंग निर्मल स्वरूप है जिसका और जिसमें अवग्रहादि का क्रम समाप्त हो गया है। वह अतीन्द्रिय प्रत्यक्षज्ञान अनाकुल होने से स्वयं ही सुखस्वरूप है और उसी का नाम अतीन्द्रिय सुख है। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “परोक्ष और प्रत्यक्षज्ञान दोनों ही प्रमाणज्ञान हैं। इसमें प्रत्यक्षज्ञान आदरणीय है और परोक्षज्ञान आदर करने लायक नहीं है।' ___ परोक्षज्ञान है, वह सच्चाज्ञान है; किन्तु आदणीय नहीं; क्योंकि इसमें इन्द्रिय की अपेक्षा आती है और उसमें आकुलता होती है।२ ___ सही ज्ञान को प्रमाण कहते हैं, उसमें दो भाग क्यों हैं ? - ऐसा कोई प्रश्न पूछे तो उसका समाधान - दोनों ज्ञान सही हैं; किन्तु आत्मा ज्ञानस्वभावी है - ऐसा स्वतरफ झुका हुआ ज्ञान आदरणीय है और जो ज्ञान इन्द्रिय द्वारा अर्थात् दुश्मन द्वारा होता है, वह परोक्ष है और छोड़ने लायक है। ___ यहाँ तो इन्द्रियज्ञान को मोहवाला-आकुलतावाला-संशयवाला कहा है। परतरफ के लक्ष्यवाला ज्ञान भेदवाला है; इसलिए वह आदरणीय नहीं है - ऐसा कहा है। इन्द्रियज्ञान पराधीन, क्रमिक और मलिन होने से दुःखदायक है; इसलिए वह हेय है। प्रत्यक्षज्ञान परमार्थतः सुखरूप है। आत्मा का ज्ञानस्वभाव त्रिकाल है, उसकी पर्याय इन्द्रिय की सापेक्षता करके ज्ञान करे, वह परोक्षज्ञान प्रमाण इसप्रकार उपर्युक्त पाँच कारणों से प्रत्यक्षज्ञान अनाकुल है और इसीकारण प्रत्यक्षज्ञान पारमार्थिक सुखस्वरूप है।" आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इस गाथा का भाव आचार्य अमृतचन्द्रकृत तत्त्वप्रदीपिका टीका के अनुसार ही स्पष्ट करते हैं। कविवर वृन्दावनदासजी प्रवचनसार परमागम में इस गाथा के भाव को इसप्रकार व्यक्त करते हैं - (मनहरण कवित्त ) ऐसो ज्ञान ही को सुख नाम जिनराज कह्यो, जौन ज्ञान आपने सुभाव ही सों जगा है। निरावर्नताई सरवंग जामें आई औ जु, अनंते पदारथ में फैलि जगमगा है ।। विमल सरूप है अभंग सरवंग जाको, जामें अवग्रहादि क्रिया को क्रम भगा है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-५७ ३. वही, पृष्ठ-५८ २. वही, पृष्ठ-५७ ४. वही, पृष्ठ-६३
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy