________________
गाथा-४७
२२५
२२४
प्रवचनसार अनुशीलन वह क्षायिकज्ञान, क्रमप्रवृत्ति के हेतुभूत क्षयोपशम अवस्था में रहनेवाले ज्ञानावरणीय कर्म पुद्गलों का अत्यन्त अभाव होने से तात्कालिक-अतात्कालिक पदार्थ समूह को समकाल में ही प्रकाशित करता है।
वह सर्वविशुद्ध क्षायिकज्ञान, प्रतिनियत प्रदेशों की विशुद्धि का सर्वविशुद्धि में डूब जाने से सभी पदार्थों को सर्वात्मप्रदेशों से प्रकाशित करता है और सर्व आवरणों का क्षय होने से व देश आवरण का क्षयोपशम न रहने से भी सभी पदार्थों को प्रकाशित करता है।
ज्ञानावरण के सर्वप्रकार क्षय हो जाने से और असर्वप्रकार के ज्ञानावरण के क्षयोपशम के विलय को प्राप्त हो जाने से वह अतीन्द्रियज्ञान विचित्र अर्थात् अनेकप्रकार के पदार्थों को प्रकाशित करता है।
असमानजातीय ज्ञानावरण के क्षय हो जाने से और समानजातीय ज्ञानावरण के क्षयोपशम के नष्ट हो जाने से वह विषम अर्थात् असमानजातीय पदार्थों को भी प्रकाशित करता है।
अथवा अतिविस्तार से क्या लाभ है ? इतना ही पर्याप्त है कि जिसका अनिवारित फैलाव है - ऐसा वह प्रकाशमान क्षायिकज्ञान सर्वत्र सभी को सर्वथा और सदा जानता ही है।"
आचार्य जयसेन ने तात्पर्यवृत्ति में इस गाथा का अर्थ सामान्य ही किया है। उसमें ऐसी कोई विशेष बात नहीं है, जो विशेष उल्लेखनीय हो।
इसीप्रकार कविवर वृन्दावनदासजी ने भी उक्त गाथा और टीका के भाव को दो छन्दों में सामान्यरूप से ही छन्दोबद्ध कर दिया है।
इस गाथा के भाव को स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
तथा भगवान सभी को अक्रम जानते हैं । भविष्य में होगा, तब भगवान जानेंगे तो इसमें क्रम हो गया; किन्तु भगवान के जानने में क्रम नहीं है, वे युगपत् जानते हैं। क्षयोपशम ज्ञान में क्रम पड़ता है।' १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-३७४-३७५
जगत में केवलज्ञान है - इसकी स्वीकारोक्ति ज्ञाता-स्वभाव को स्वीकार किए बिना नहीं होती। केवली भगवान कहते हैं कि 'हम कौन हैं' - यह तेरे स्वभाव-सन्मुख होकर निर्णय कर ।
आत्मा एक समय में सर्वप्रदेश से, सर्व द्रव्यों को,सर्वभाव से जानता है। पूर्ण द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव को जानता है। यह धर्म के लिए मुख्य (मुद्दे की) रकम है - ऐसे निर्णय बिना करणानुयोग अथवा चरणानुयोग आदि का ज्ञान, सच्चा नहीं होता।'
केवलज्ञान के निर्णय में मोक्ष-तत्त्व का अथवा देव का निर्णय आता है - ऐसा निर्णय ज्ञानस्वभाव के आश्रय से होता है।'
केवलज्ञान सर्व पदार्थों के, सर्व क्षेत्र को, सर्व काल से, सर्व भाव से जानता है। यह क्षायिकज्ञान बाहर से नहीं आता, राग की क्रिया में से अथवा निमित्त में से क्षायिकज्ञान नहीं आता, अपितु परम-पारिणामिक भाव-चैतन्यभाव में से क्षायिकज्ञान आता है।"
इस गाथा में अतीन्द्रियज्ञान की सर्वज्ञता सिद्ध की गई है। कहा गया है कि अतीन्द्रिय ज्ञान पर की सहायता बिना स्वयं के सर्वात्मप्रदेशों से जानता है, अक्रम से जानता है, सभी को जानता है और भूत, भविष्य
और वर्तमान - तीनों कालों में घटित होनेवाली घटनाओं-पर्यायों को अत्यन्त स्पष्टरूप से प्रत्यक्ष जानता है; क्योंकि क्रमपूर्वक जानना, नियत आत्मप्रदेशों से ही जानना, अमुक को ही जानना आदि मर्यादायें क्षयोपशमज्ञान में ही होती हैं। अतीन्द्रियज्ञान अर्थात् केवलज्ञान में ऐसी कोई मर्यादा नहीं होती।
ज्ञान की सर्वज्ञता और क्रमबद्धपर्याय में आशंकायें व्यक्त करनेवालों को इस गाथा के भाव को गंभीरता से जानने का प्रयास करना चाहिए। .
१. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-३७५ ३. वही, पृष्ठ-३७८
२. वही, पृष्ठ-३७७ ४. वही, पृष्ठ-३७८